Saturday 30 January 2016

आम सा ख़ास



कभी तो तुम आम इंसान में भी आम बन जाती हो 
कभी खासो से भी खास बन जाती हो  
ऋतू भी इतनी तेजी से नहीं बदलती 
 जितनी तेजी से तुम अपने मिज़ाज दिखाती हो 
मुझे समझ नहीं आता 
कि  जब यह आम इंसान है तो  
मेरे करीब क्यों नहीं 
अगर यह ख़ास है तो  
इसमें इतनी जिद्द और दूसरी कमजोरी क्यों रही 
इसलिए मैंने तुम्हें 
सिर्फ एक  आम सा ख़ास बनाया है  ।  
ख्यालों  में भी
मेरी बनकर रहना
क्यों तुम्हे पसंद नहीं आया है ?  

By
Kapil Kumar 

The Perspective of life!!


In my  perception  ,there are two ways to see and understand this world logically and by spiritually(faith). 

In the logical way , we believe in the things and events ,those can be certified and proved by scientific way or in other words we can prove them anywhere regardless to the place or person . 

However, In another contrast faith is just a mere belief , which could be based on surroundings , upbringing , culture or experiences. 

The logical things are facts based on common sense or has been proven by science ,however belief is just a routine or blind follow-up on the certain things it could be religion , faith , culture and rituals, even though we know very well that these things can't be justify or prove in a logical way , however ,we want to keep our belief on these. 


Let me give you a real time example. Suppose, you are standing at a place where nothing is near by , means no animal or human, if I ask you, what you see in the surroundings? 

Do you see someone singing or dancing or playing? 

I am sure most of you will laugh and say , how could this possible when there in no one except me. Agreed ,In a common sense this seems correct , however , can you deny that there is no electromagnetic signal near by you? 

 I am sure, we are surrounded by many waves , vibrations or electromagnetic waves all the time everywhere. 

The problem is, we cannot see or feel this electromagnetic signals or extract information out of this, but when we used some kind of electronic receiver or antenna with the help of some TV/radio then we can see/hear something Technology makes this thing so natural to us that we do not think that, there was nothing near by and everything was just like that, but some technique and electronics equipment made it possible to see or listen at the place where nothing was there. 


Idea of explaining this example is that if we cannot see or hear something,it does not mean that these things do not exist. 


I am not different than anybody else in this world to adept this double standard. I also keep my faith with scientific brain along with me. 

Reason, for our convenience or peace of mind, we put a blind fold to let go certain facts to avoid brutal , harsh and unpleasant truth to digest. Or we don’t want to go in the detail of ugly truth or we don’e have enough evidence to deny certain facts.So the best way is this, let us accept some things as they are or being told to us as a faith. 

But some time problem arises in such a way that we stuck in a situation where we have to take a stand that which way we have to keep our inclination. In my perspective no one is 100% logical or spiritual , in this world. 

Anyway , let us come to the point what are my intention to discuss this.If you have seen a boat or ship will be well aware that a tiny hole can sink the whole ship , similarly some time a good woolen sweater lost its weaving by just flicking one thread out of it? 

By
Kapil Kumar 


Note: “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. Resemblance to any person, incident or place is purely coincidental”. The Author will not be responsible for your deeds. 

आस्था या?


बचपन से सुनता आ रहा हूँ की अरे पूजा कर ले… भगवान  के आगे माथा तो टेक ले ! न तो मुझे कल समझ आया था न ही आज …..कि यह आस्था , भक्ति और पूजा क्या है ? अगर है तो क्यों ?....

जिन्दगी कि उलझनों को सुलझाते सुलझाते कब जवानी कि साँझ हो गई पता भी न चला और जब एक  दिन किसी के व्यंग ने मेरी आस्था पर सवालिया निशान लगाया तो दिल और दिमाग पूरानी यादों में जैसे खो गया ।….

यादों  के आँगन  में टहलते टहलते कब बचपन के दरवाजे पर पहुँच गया पता भी न चला ?

जिस स्थान पर मेरे जन्म हुआ और जिस  गली में  बचपन ने अपने कदम जवानी की तरफ बढ़ाये थे … उस गली में एक  पीपल का बहुत पुराना पेड़ था !किसी विशेष त्यौहार पर स्त्रियाँ उस पेड़ कि पूरे मनो भाव से और ध्यान लगा कर पूजा करती ,उसकी परिक्रमा करती और उस पीपल के पेड़ के इर्द गिर्द धागा भी बंधती ! मेरा बाल मन यह सोच सोच के अचंभित होता आखिर इस पीपल के पेड़ में आज क्या आ गया है ? कल तक तो इसके नीछे कुत्तो की  हुकूमत चलती थी , मौहल्ले  का कूड़ा यहाँ शोभा बढ़ता था .... आज इसकी किस्मत कैसे पलट गई ?


क्यों  किसी खास दिन यह भगवान  कि तरह पूजा जा रहा है ?

वक़्त गुजरा और हमने जवानी कि दहलीज पर अपना कदम रखा ! एक  दिन नजर घुमा कर देखा तो पाया हमारे घर के सामने कि जिस जमीन  पर हम क्रिकेट खेलते थे उस स्थान पर कुछ लोग  हाथ जोड़े खड़े है....
पास  जाकर देखा तो पता चला ….कि यहाँ  पर साक्षात् भगवान प्रगट हुए हैं । .....

उनमे कुछ लोगो को हम पान बीडी कि दुकान पर  दिन रात खड़ा पाते थे और कुछ किसी कि दुकान के बाहर  खाट  पर लेट दिन दहाड़े कुम्भकर्ण के सम्बन्धी होने कि मुनादी करते !

हमारे नासमझ मन को यह समझ नहीं आया कि जिन्हें मंदिर तो क्या अपने घर का रास्ता भी याद नहीं ? जिन्हें यह भी पता नहीं कि घर में उनके बीवी बच्चे भी है ? उन्हें आज अचानक  भगवान के प्रति  अपने कर्तव्य बोध का ज्ञान कैसे हो गया ?....

वक़्त के साथ मूंछो ने दाढ़ी के साथ चेहरे पर जब अपना कब्ज़ा जमा लिया तब हमारा इंजीनियरिंग  में दाखिला हो गया और हम उस रहस्य को बिना सुलझाये अपने कॉलेज चले गए !.....

जब कुछ महीनो बाद हमारा वापस आना हुआ तो वहां  पर हमने एक  विशाल धार्मिक स्थल  का निर्माण होते पाया और वह  महान आत्माएं  जो कुछ महीने पहले तक अपने इन्सान होने का दावा झुठलाती  थी आज वह  सब इस धार्मिक स्थल के ट्रस्ट के लिए दिन रात जी जान से मेनहत कर रही थी!...

अब यह उनकी भक्ति का प्रताप कहे या उनके सद्कर्म  कि जो कल तक २५/५० पैसे के पान बीडी के लिए गिड़गिड़ाते  थे आज उनके सामने शहर के बड़े बड़े धनवान हाथ जोड़े खड़े थे और कुछ उनके पैरों पर  गिड़ गिडाकर धार्मिक स्थल कि शिला पट्टी पर अपने नाम को लिखने कि भीख मांग रहे थे….

ना तो मुझे कल समझा आया था... ना मुझे तब समझ आया ? यह क्या और कैसे हो गया ?


ना जाने वक़्त ने कब अंगड़ाई ली और हम देसी से विदेशी हो गए ! हमारे  यहां एक  धार्मिक स्थल  है और हमारी श्रीमती  हमें जबरदस्त खींच  खांच के इस धार्मिक स्थल पर  ले आती है यहां  पर पूजा करने वाले कर्मचारी को पूजा स्थल कि और से मासिक वेतन और अनेक सुविधा है...

जो लोग  पूजा के लिए आते है उन्हें धार्मिक स्थल  के नाम रसीद कटानी होती है और हर पूजा का रेट भिन्न भिन्न है आप अपनी श्रद्धा  से पूजा करवाने वाले कर्मचारियों के लिए एक  पेटी में टिप डाल सकते है पर उसके हाथ में कुछ नहीं दे सकते ?

हमारी श्रीमती जी किसी एक  ख़ास कर्मचारी से ज्यादा लगाव रखती है शायद वह  हमारे ही पैत्रिक स्थान से सम्बंधित है वह  हमेशा अपनी पीड़ा का प्रदर्शन इस तरह से करता कि हमारी श्रीमती जी सबकी नज़रें  बचा कर उसके हाथ में १०/२० डॉलर का एक  नोट थमा देती !.....

जिस देश में रिश्वत आप किसी को दे नहीं सकते और किसी से ले नहीं सकते क्योंकि कायदे कानून बहुत सख्त है .....


वहां  ईश्वर  को हाजिर नाजिर जानकर भक्त भी और पुजारी भी रिश्वत रूपी प्रसाद का आनंद लेते है और एक  नहीं ऐसे हजारो भक्त है जो इस पुण्य  को रोज कमाते और बांटते है !

इस गुत्थी को भी हम सुलझा नहीं पाए शायद आप में से कोई हमें समझा दे ?

By

Kapil Kumar 


Note :-यांह पर पगट विचार निजी  है इसमें किसी कि भावना को आहात करने का इरादा नहीं है

Friday 22 January 2016

चित्तचोर


मेरी मोहब्बत को, सिर्फ दोस्ती कह कर उसकी तौहीन  मत करो
तुझे मुझसे ,अब तक नहीं हुआ प्यार इसका कैसे यकींन करो 
लगता है तेरे दिल के राज , ताउम्र तेरे सीने में ही दफन रहेंगें  
हो सके तो मुझे अपनी इन चाहतो से बस , अब मुक्त करो .....


समझा लूँगा दिल को , की मुझमे ही खोट था 
मेरी वफ़ा और मोहब्बत के ताश का महल , निहायत ही कमजोर था 
उसे तो टूटना था एक  दिन , सिर्फ एक  हवा के झोंके से 
यह बात और है ,की उस झोके को हवा देने वाला कोई ग़ैर  नहीं 
मेरा अपना ही चित्तचोर  था ......

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Kapil Kumar 

वक़्त के साये में ..........





वक़्त  के साये में  कच्चा दूध भी फट जाता है 

, इंसान अपने दिल के हाथों  अक्सर  मजबूर हो जाता है 

मैंने  यह तो नही कहा की , तेरी गलती है 

अक्सर  इंसान आपनो के ही हाथों  लुट जाता है । 


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Kapil Kumar 

Thursday 21 January 2016

नारी की खोज –--11


  

अभी तक आपने पढ़ा (नारी की खोज भाग –1 से 10 तक में ) ...की मैंने  बचपन से आज तक नारी के भिन्न भिन्न रूपों को देखा .......मेरे इस सफर की आगे की कहानी.....



गतांक से आगे .......



इन्सान जिस घर और समाज में जन्म लेता है वहां  जन्म के साथ ही उसे कुछ रिश्ते नाते इस सामाजिक व्यवस्था द्वारा उपहार में दे दिए जाते है , कुछ रिश्तों  का वह  आगे चलकर, खुद निर्माण करता है , पर समझने वाली बात है , क्या एक  इन्सान को जीवन में खुश रहने या जीवन बसर करने के लिए इन रिश्तो की आवश्यकता है ?



शायद ,रिश्तों का निर्माण सामाजिक व्यवस्था  द्वारा इन्सान को वक़्त जरुरत पड़ने पर सहारा और हौंसला  देने के लिए किया गया , पर कई बार यह रिश्ते नाते सहारा  देने की जगह अनचाहा बोझ और हौंसले  की जगह पाँव  की बेड़ी  बन कर इन्सान को जीवन भर घसीट कर चलने के लिए मजबूर कर देते है , जब जब इन्सान इस अनचाहे बोझ और बेड़ी  से मुक्त होने का प्रयास करता है , उसे इन्हीं  रिश्तों की सामाजिक मान मर्यादा का हवाला देकर डराया और शोषित किया जाता है ...कभी यह शोषण मज़बूरी में , तो कभी बहला फुसला कर करवा लिया जाता है,जब तक इन्सान के कुछ समझ आता है , तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ,उम्र उसका दामन छोड़ने वाली होती है और वह  ना चाह कर भी इस कैद में मरने को मजबूर होता है, तब  इन्सान अपने आप से पूछता , मुझे इन रिश्तो से, आखिर क्या मिला ?  



मैंने  ब्रांच ऑफिस से अपना बोरिया बिस्तरा समेटा और रीजनल ऑफिस के पास के एक  होटल में डेरा जमा लिया ।  अब कुछ महीने मुझे एक  भटकते मुसाफिर की तरह काटने थे , दुनिया गोल है और कई बार हम वापस उसी बिन्दु पर  जाकर खड़े हो जाते है ,जहां  से हमें अपनी पहली यात्रा की शुरुवात की होती है, इसे मुझ से ज्यादा कौन समझ सकता था , आज मैं वापस उसी शहर में आया था , जहां  से मैंने  इंजीनियरिंग की पढाई की थी ....



अब यह शहर काफी बदल चूका था साथ में मेरी हैसियत और हालत भी .... कॉलेज के दिनों में जो जो रेस्टुरेंट एक  सपने होते थे , अब वह  मेरी रोज़मर्रा  की जिन्दगी का हिस्सा थे , उन दिनों जिन जिन जगह हम खाना खाने का प्रोग्राम बड़ी हसरत से बनाते  थे , वह  सब जैसे मामूली सी चीज लगती थी , यहां  आकर मैंने  अपनी कॉलेज के  खाने पीने  और सिनेमा की अधूरी इच्छाओं  को जमकर पोसा , उसका परिणाम यह निकला , मैंने  कुछ ही महीनों  में काफी वेट गेन कल लिया .....जिसे मैं आज तक ढो रहा हूँ ..

रीजनल ऑफिस की आबो हवा , वातावरण और काम करने के तरीके सब मे ब्रांच ऑफिस से जमींन आसमान का फर्क था ...ब्रांच ऑफिस में हम कुछ टेक्निकल लोग ही होते थे , एक सुन्दर  अदद नारी के दर्शन भी वहां  दुर्लभ थे , इसके विपरीत यहां  , एक  से एक  सुन्दर नारी , हमारे नयन सुख के लिए मौजूद थी , यहां  टेक्निकल स्टाफ के अलावा , कस्टमर केयर , ह्यूमन रिसोर्स , मार्केटिंग और एकाउंट्स डिपार्टमेंट भी था , ना जाने कैसे सबने अपने अपने डिपार्टमेंट में एक  से बढ़ कर इक नगीने भरती किये थे , लगता था जैसे.... सारे शहर की ब्यूटी हमारी कम्पनी के ऑफिस में आ गई थी ...



यहां  आकर मुझे सब कुछ मिला , नाम , इज्जत और पैसा ,हमारी कंपनी का सी ई ओ , मुझे सबसे ज्यादा काबिल मैनेजर  समझता था ,बस मेरा काम पहले टेक्निकल था ...अब वह  मैनेजरियल टाइप हो गया , जिसकी वजह से मुझे काफी भाग दौड़ करनी होती ... मुझे एक  पुरे एरिया को मॉनिटर करना होता था , इस सिलसिले में मैं अक्सर आस पास के शहरों  का रोज़  दौरा करता .... कहाँ तो मैं ब्रांच ऑफिस में यह सोच कर गया था की कुछ महीनों  में वापस आजाऊंगा , पर रीजनल ऑफिस में आकर लगा की , वापसी बड़ी दूर है ..... उस ज़माने में, मैं अपनी नॉलेज का दायरा सिर्फ टेक्निकल तक ही सिमित रखना चाहता था ,ताकि जल्दी से जल्दी हेड ऑफिस वापस जा सकूँ .....क्योंकि हेड ऑफिस ही मेरे घर के पास था और उस वक़्त हेड ऑफिस में सिर्फ टेक्निकल लोगो की डिमांड थी ....



जीवन में सब कुछ था , बस घर परिवार से दूर , ऐसे में सब कुछ होते हुए भी मुझे, एक  बैचेनी होती , की जल्दी से जल्दी यहाँ  से ट्रान्सफर करवा के अपने घर कैसे पहुँचू।  



काश उस वक़्त कोई मुझे, मेरा भविष्य दिखा देता ,की जिस घर परिवार के लिए मैं बैचेन हूँ , वही एक  दिन मेरे सर का बोझ और पांव के बेडी बन जाएगा, तो शायद मेने जीवन का वह  लम्हा , बड़ी शिद्दत से जिया होता ?



यहां  ऑफिस में एक  से बढ़ कर एक  कलियाँ और फूल थे , पर बदकिस्मती तो जैसे मेरी परछाई बनकर मेरे साथ आई थी , मैं ऑफिस में सुबह सुबह आता , अपने सी ई ओ से रिपोर्ट डिस्कस करता और दौरे पर  निकल जाता तो देर शाम को लौटता , उस वक़्त तक सारी चिड़ियाँ चह चाह कर वापस अपने गुलिस्तां  में लौट चुकी होती ... उन्हें सुबह आते हुए देखना या फिर शाम को ज्यादा से ज्यादा जाते हुए देखना भर नसीब होता और कई बार तो काम के सिलसिले में मुझे दुसरे शहरो में भी रहना पड़ता इसलिए ऑफिस आना भी यदा कदा होता , जब भी ऑफिस आना होता तब कभी किसी चिड़िया के चहचहाने की आवज सुन पाता ...



एक  दिन किसी काम से, मैं दोपहर को ऑफिस आया , ऑफिस में एक  कमरा था , जिसमे सिर्फ ट्रेनी इंजिनियर ही बैठेते था या कभी कभी हम जैसे मुसाफिर आकर अपना थोड़ी देर का डेरा एक  दो दिन के लिए वहां  लगाते थे ..मै कमरे में जैसे घुसा तो देखा , एक  इंजिनियर लड़की साथ वाले लड़के के साथ किसी मैप पर झुकी  कुछ डिस्कस कर रही है ...मैंने  उस पर ध्यान भी न दिया और थोड़ी देर कमरे में बैठ वापस चला गया ...



ऐसा सिलसिला एक  दो बार और चला , मैंने  उस लड़की को ध्यान से देखा ही नहीं , एक  दिन जब मैं कमरे में घुसा तो देखा , एक  निहायत ही खुबसूरत लड़की जो दिखने में 23 /24  साल की होगी ,उस कमरे में अकेली बैठी थी , उस वक़्त एक   साडी उसके खुबसूरत बदन को लपेटे हुए थी , जैसे ही मैं कमरे में घुसा तो उसने अपना चेहरा उठा कर मुझे देखा ,जब मैंने  उसे देखा तो देखता ही रह गया , इतनी सुन्दर लड़की इतने करीब से, मैंने  आज से पहले अपने जीवन में शायद दो चार बार ही देखी  होगी ...



संगमरम के जैसा चिकना बदन जिसे एक  मंझे हुए कारीगर ने आराम से तराश  कर सांचे में ढाला हो , उसपर  उसकी गोल गोल बड़ी बड़ी आंखे , जिसपर  काजल ने सज कर अपनी किस्मत को सराहा होगा और चौड़े  माथे पर एक  बड़ी सी बिंदी ,जो अपने को किसी ताज से कम नहीं समझ रही थी , होंठों पर  सजी गहरे कथई रंग की लिपस्टिक उन्हें किसी छलकते जाम को चुनौती दे रही थी और जैसे कह रही थी की हिम्मत है तो आओ मुझे छू  के दिखाओ , यह सब उसकी सुन्दरता में सज कर अपने को धन्य मान रहे थे ...

ऐसा लगता था इन्सान के ईमान को बहकाने  की ....उसने पूरी तैयारी कर रखी थी , उसे देख ,लगता था मधुबाला ने धरती पर पुनर्जन्म ले लिया हो ....मेरी आँखे थी की उससे हटती ना थी ... अचानक उसकी आवाज से मैं जागा ,जब उसने मुस्कुराते हुए कहा , सर , इस बार तो बहुत दिनों बाद आए ?



उसकी खनकती हुई हंसी और बड़ी बड़ी गोल आँखे जैसे मुझसे पूछ रही थी , बस एक  ही वार में चित्त  हो गए , उसकी बात पर  गौर दिया तो मुझे यह बात सुन हैरानी हुई की वह  मुझे कैसे जानती है ?मैंने अपनी हैरानी को जैसे अपने सवाल में उड़ेल दिया और बोला , मैंने  तो तुम्हे आज पहली बार देखा है , फिर तुम मुझे कैसे जानती हो ?

मेरी बात पर वह  जोर से हंसी और बोली , अरे सर आपको कौन नहीं जानता ? वैसे भी आप पहले कई बार यहां  आ चुके है , अब चौंकने  की बारी मेरी थी , मैं यहां आया और इस खुबसूरत नगीने को बिना देखे चला गया , आखिर यह गुस्ताखी मैंने  की तो कैसे और क्यों की?



मैंने  कमरे की एक  टेबल पर  अपना ब्रीफ़केस रख दिया और उसमें कुछ ढूंढने  के बहाने बीच बीच  में , उसपर  अपनी नज़रें  इनायत कर देता ....जब जब मैं उसे देखता , मेरी साँस थी की मेरा साथ छोड़ने को तैयार बैठी थी , उसकी मौजूदगी में एक  ऐसा नशा था ,



जो मुझे चुनौती  देकर पूछ रहा था की  , अब तुम इसमें डूबे बिना ना रह पाओगे ...उसे जितना में निहारता , उतना ही उसके मदहोश हुस्न में खोता जाता ...



मेरी निंद्रा टूटी जब उसके साथ काम करने वाले एक  ट्रेनी इंजिनियर ने उससे कुछ कहा ....मुझे वहां  देख, वह  बड़े जोश में बोला , अरे सर बहुत दिनों बाद दिखलाई दिए , वह  लड़का मुझे पहले से जानता था ... उस लड़की के बारे में जानने की मेरी जिज्ञासा चरम सीमा पर थी , मैंने  उसे इशारे से बहार बुलाया और पुछा यह कौन है ?



वह  तो जैसे उसका पूरा बायोडाटा तैयार लिए बैठा था ...जोश में बोला अरे सर , इसका नाम ऋतू है , इसने कुछ दिन पहले ही ज्वाइन किया है , अरे यह तो आपके ही कॉलेज से पास आउट है , इसे तो आपके ब्रांच ऑफिस वाले बंगाली दादा ने कैंपस से सेलेक्ट किया है और ऐसा कह उसने अपनी एक  आँख दबा दी ..... अब मेरी इच्छा उसके बारे में और जाने की थी ...उस वक़्त तो मैंने  उसे कुरेदना ठीक ना समझा ....बात आई गई हो गई , मैं अपने काम में बिजी हो गया ....



एक  दिन किसी साइट  का काम ख़त्म करवाने के बाद ,मैं वापस ऑफिस आया था , अब मुझे कुछ दिन ऑफिस में ही आना था , बहुत ज्यादा गर्मी होने की वजह से साईट का काम रुका पड़ा था ...कमरे में घुसा तो नज़रें  जैसे ऋतू को ही तलाश रही थी , वह  कुछ अपने साथ के ट्रेनी के साथ गप्पों में मशगुल थी , मेरे आने से उन सब में एक हड़कंप सा  मच गया और सब अपनी जगह खड़े होकर , कहने लगे अरे सर यहां  बैठे ....



एक  अच्छी सी टेबल लेकर मैंने अपना डेरा वहां  जमा लिया और उन लोगो के साथ गुफ़्तगू  में लग गया ... एक  दो दिन की हल्की  मुलाकात के बाद , मैं वहां  बैठने वाले लोगो के बारे में कुछ कुछ जान गया , अधिकतर इंजिनियर, मैनेजमेंट ट्रेनी थे , जो कैंपस के थ्रू कुछ ही दिनों पहले ज्वाइन हुए थे .....



अब मैं जब भी ऑफिस आता , ऋतू से मुलाकात हो ही जाती , उसके और मेरे लेवल में काफी फर्क था इसलिए उससे सीधे बात करना उचित ना लगता , दुसरे वह  किसी और को रिपोर्ट करती थी ,इसलिए उससे मेरा कोई सीधा काम भी ना था , पर मेरा ऑफिस भी उसी कमरे में था , इसलिए वहां  बैठते हुए , उससे कुछ ना कुछ बाते हो जाती ...



अधिकतर ट्रेनी वहां  सिर्फ गप्पे हांकने के लिए ही बैठते थे , वरना सब बाहर  जाकर अपनी अपनी साइट  का काम देखते ...ऋतू को जब भी मौका मिलता वह  मुझसे कुछ ना कुछ हंसी मजाक जरुर कर लेती , अब इतने लोगों  के बीच , उसकी बातों पर हंसने  के सिवा , मैं कुछ नहीं कह सकता था ...वहां बैठने वाले सारे ट्रेनी और दुसरे डिपार्टमेंट के लोग मौका देखा ऋतू पर लाइन जरुर मारते , जिसे वह  अक्सर मुझे जरुर बताती ....शायद उसे भी पता था ,की वह वहां  की क्वीन है ...



ऋतू के बारे में जाने पर पता चला तो मन में कुछ अजीब सा हो गया , वह एक  तलाक शुदा औरत  थी , जिसके १ साल का एक  बेटा भी था ...छोटी उम्र में उसे किसी से इश्क़  हुआ था , जिसकी वजह से वह प्रेगनेंट  हो गई थी और उसे पढाई के  बीच में ही शादी करनी पड़ी थी , उसके पिताजी शहर के एक  जाने माने आई ए एस  ऑफिसर थे ...खैर  इन बातों  का मुझे क्या फर्क पड़ना था , मैं एक  उड़ता बादल था , जिसे तो बस बरसना था , अब वहां पर सुखा रेगिस्तान हो या हरियाली जमींन , उसके लिए सब एक सामान था ...



ऋतू एक  फैशनेबल  लड़की थी , जिसे मेकअप से लेकर फैशन के कपडे  सबका अच्छा ज्ञान था....

ऐसे ही एक  दिन बातो ही बातो में मेने उससे कहा , तुम मॉडल लगती हो , इसपर  उसने हँसते हुए कहा मैं लगती नहीं हूँ ,बल्कि हूँ भी , उसने बताया की ,कॉलेज के दिनों में उसने ऐड एजेंसी के लिए छोटी मोटी मॉडलिंग  भी की हुई है ... उसे जब भी मौका मिलता वह  मेरे कपड़ो पर एक  छींटा कशी जरुर कर देती , उसे मेरे कपड़ो के सिलेक्शन से एक तरह की  चिढ सी थी , जब भी उसे मौका मिलता , वह मुझे कपडे पहनने का सलीका समझाने लगती , की जींस को मोड़ कर नहीं पहनना चाहिए , किस तरह की शर्ट के साथ कैसी पैन्ट्स पहननी चाहिए आदि आदि .....मैं उसकी बाते सुनता और हंसी में उड़ा देता , उक वक़्त काम ही कुछ ऐसा था , की टॉवर  लगवाने के लिए धूल  भरी साईट के सर्वे के बाद , सारे कपडे , गंदे और धुल  से भरे होते ...



मैं जब जब ऑफिस आता , वह  मुझे देख खिल उठती और मेरे करीब आने के बहाने बनाती , अब मज़बूरी ऐसी थी की , लड़की के चक्कर में , मैं  पहले ही एक  नौकरी गवां चूका था , दूसरी गंवाने  का मेरा इरादा न था , इसलिए उससे मैं दूर से ही बात करता , पर वह  तो कोई मौका ही ना छोडती ...



जितना मेरा ऋतू से सामना होता , उतना ही मेरा दिल उसे देख धड़कता  , पर मज़बूरी ऐसी थी , की मैं उस कमरे में ज्यादा देर बैठ नहीं सकता था , मेरा सी. ई. ओ. , मुझे बुलावा देकर अपने कमरे में गप्पे करने के लिए बुला लेता और पूरा दिन वहीँ  निकल जाता ...



कुछ दिनों से ऋतू मेरे पीछे पड़ी थी की ,मैं उसे GSM मोबाइल टेक्नोलॉजी को समझाऊँ , मैं उसे बहाने बना कर टकरा देता , एक  दिन कमरे में वह  और मैं अकेले बैठे थे , बस मौका देख वह  मेरे पीछे पड़ गई , की आज तो मैं उसकी क्लास ले ही लूँ ... उस दिन मेरे पास कोई ख़ास काम भी ना था इसलिए मैंने  भी मज़बूरी में हाँ कर दी ......



वह  मेरी टेबल के पास एक  कुर्सी खींच  कर बैठ गई , मैं उसे मोबाइल टेक्नोलॉजी के बेसिक कांसेप्ट समझाने लगा , कैसे मोबाइल फोन, पास के मोबाइल टॉवर  से कनेक्ट करता है , कैसे टॉवर  , एक्सचेंज को सिग्नल भेजता है आदि आदि , जैसे जैसे मैं उसे समझाने में लगा था , वह  धीरे धीरे मेरे करीब आने  लगी , उस वक़्त कमरे में सिवाए हम दोनों के कोई और ना था , मेरी आवाजे बीच बीच  में सन्नाटे को भंग कर देती थी ...



अभी मैं झुका हुआ कागज पर  कोई डायग्राम बना रहा था की अचानक ऋतू का घुटना मेरे घुटने से सट गया , उसके घुटने का छूना था की मुझे एक ज़ोर  का करंट लगा , पर वह  तो ऐसे दिखा रही थी जैसे कुछ हुआ ही नहीं ...मैंने झिझकते हुए अपना घुटना पीछे कर लिया , थोड़ी देर बाद फिर से , उसने अपना घुटना मेरे घुटने से सटा दिया और अपना चेहरा मेरे चेहरे के इतना करीब ले आई  ...की उसकी सांसो की गर्मी मैं अपने करीब महसूस कर रहा था , उसका चेहरा मेरे चेहरे से लगभग सटा हुआ सा था , पर उसकी निगाहें  मेरी कॉपी पर थी ...मैं उसे क्या समझा रहा था और वह  क्या समझ रही थी यह तो खुदा ही जाने....

उसके शरीर  की गर्मी उसके घुटने से होती हुई मेरी घुटनों से टकरा कर मुझे बैचेन कर रही थी, मेरी साँस जैसे अटकी हुई थी की अगर किसी ने हमें ऐसे देख लिया तो ,क्या होगा ?



किसी तरह अपने पर  काबू रख मैंने , अपना लेक्चर ख़त्म किया , उसने अपना चेहरा उठाया तो उसके आँखे एक  खुला निमत्रण दे रही थी ...मैं अभी कुछ कहता या सुनता की , मनहूस सी. ई. ओ. का बुलावा आगया ...मैं उसे उसी हालत में छोड़ चला गया और जब वापस लौटा तो वह  अपने घर जा चुकी ..उस दिन के बाद मैं इसी तलाश में रहता की अब फिर कब उससे अकेले में मिलने का मौका मिले , पर अधिकतर समय कोई ना कोई ट्रेनी कमरे में बैठ होता ...



पुरे  ऑफिस को पता था की मैं यहां  से काम ख़त्म करने के बाद हेड ऑफिस वापस जाने के लिए बैचेन हूँ , जब जब ऋतू से मेरा सामना होता , वह हर बार मुझे कहती की मैं अपना जाना कैंसिल कर दूँ और यहीं  सेटल हो जाऊं  ...मेरा सी. ई. ओ. मुझे नए नए लालच देता , की मेरा प्रमोशन कर देगा आदि आदि , पर उस वक़्त मेरे दिमाग में सिर्फ घर के सिवा कुछ ना घूमता था ...

एक  दिन ऋतू ने मुझसे पूछ लिया , की आप वापस जाने के लिए क्यों बैचेन हो ? यहीं  रहो और जिन्दगी को मजे में काटो , ऐसा कहते हुए उसने अपनी गोल गोल आँखे मुझपर  टिका दी , मैंने कहा की मुझे अपनी बहन की शादी करनी है , मेरा बच्चा छोटा है ,जो मुझे याद करके रोता है , मेरे ऊपर घर की कई सारी जिम्मेदारीयां है ...



ऋतू ने एक  गहरी सांस ली और बोली , उन सब को भूल कर सिर्फ अपने बारे में सोचे , की आपकी ख़ुशी किस में है , बीवी बच्चे सब अपना काम चला  ही लेंगें  , उन्हें बस पैसे भेजते रहना और बची बहन की तो वह  आपकी नहीं आपके पिताजी की जिम्मेदारी है ...मैं तो यही कहूँगी की , आप यहीं  रूक जाओ ... उसने मुझसे बहुत बहस की और रुकने के लिए बहुत दबाब डाला , पर मैंने  उसकी हर दलील को अपने तर्कों से काट दिया .....



शायद मेरी यह बहस उसे पसंद नहीं आई या मेरी किस्मत की , उसके बाद मेरी उससे मुलाकात कुछ दिनों तक हो नहीं पाई , इक बार जब उससे मिला तो उसका व्यवहार  रुखा रुखा सा था , किसी ट्रेनी ने बताया की उसका किसी साथ वाले ट्रेनी से अफेयर चल रहा है ...



दिल को यह जानकार एक  धक्का सा लगा , पर उस वक्त इन सबमें  पड़ने का मेरे पास वक़्त ना था , मैं अपनी साइट  के मोबाइल टॉवर  का काम ख़त्म करके जल्द से जल्द हेड ऑफिस पहुँचने के चक्कर में व्यस्त था ..एक  महीने बाद , मैं अपना काम ख़त्म करके रीजनल ऑफिस से अलविदा लेकर हेड ऑफिस जा रहा था ....



पर उस वक़्त मुझे क्या मालुम था , आने वाले दिनों में रिश्तो और इंसानियत का एक  बदनुमा दाग जीवन भर के लिए मेरी यादो में लगाने वाला था ...



हेड ऑफिस में मैंने  अपना ट्रान्सफर तो करवा लिया , पर मैनेजमेंट मुझसे खुश ना थी , उन्हें लगता था , मैंने  रीजनल ऑफिस का काम अच्छे से संभाला हुआ था , मुझे वहीँ रहना चाहिए था , इसका नतीजा यह निकला , मुझे हेड ऑफिस में एक  बेकार सा काम दे दिया गया और  उसके साथ मेरी सारी सुविधाएं  भी चली गई ...



घर यह सोच कर आया था ,की मेरे ना होने से घर वाले और बीवी बच्चे परेशान रहते होंगे , पर हकीक़त  इससे जुदा थी , किसी को मेरी जैसे परवाह ही ना थी , जब मैं टूर पर  था , तब मेरे पास एक्स्ट्रा पैसे होते थे , जो घर वाले आराम से उड़ाते , अब उन पैसों की कटोती , सबको भारी लग रही थी , मैं और बीवी सुबह सवेरे जॉब पर  निकल जाते , ऐसी में , मेरी बहन , और माँ को मेरे लड़के को देखना होता , जब हम दोनों शाम को लौटते  , मेरी माँ अपनी शिकायतों का पुलिंदा लेकर बैठ जाती ,की तेरे बच्चे को बुढ़ापे में पालने से उसकी मट्टी पलीद हो रही है , उसे अब भी हम लोगो का खाना बनाना पड़ता है , जबकि पूरे  घर का खर्चा मैं उठता  , बहन की पढाई को पैसे अलग देता , वह  सब उन्हें याद ना रहता , बस एक  वक़्त की रोटी बनाने में और एक 2  साल के बच्चे को दूध पिलाने और उसके साथ खेलने में, उनके जैसे दुनिया जहां के काम रूक जाते ...जबकि हकीकत यह थी , जैसी जिन्दगी मेरे घरवाले अब जी रहे थे , ऐसी तो उन्होंने आज तक कभी देखी  भी ना थी ...



सास बहु में आए दिन कभी खाने को लेकर, तो कभी बच्चे पर जंग छिड़ी होती की , उसकी पसंद का नहीं बना या उसने किचन गन्दी कर दी या माँ ने बच्चे को दूध नहीं पिलाया , मेरी माँ और बीवी की रोज रोज की कीच कीच से तंग आकर मैंने एक  नौकर घर में लगा दिया , की वह  लड़के की देखभाल कर लेगा ...पर मामला उससे भी ना सुलझा , नौकर आ गया तो घर में सब जैसे लाट साहब हो गए ,बीवी कहती मेरा काम कर , माँ कहती किचन देख , बाप कहता यह कर , एक  नौकर पर सब मालिक बनकर पिल जाते ...उसका नतीजा यह निकला , दो तीन  महीने में उसने भी हाथ खड़े कर दिए ...



मुझे आजतक यह बात समझ नहीं आई , की जो माँ शादी से पहले अपने बच्चो की रोटी बना कर खिलाने में अपनी ममता समझती है , वही  माँ शादी के बाद ,अपने लड़के की दो रोटी बनाने में अपनी तौहीन  क्यों समझने लगती है  ...



बीवी को तो जैसे मेरी जरुरत ही ना थी , वह  ऑफिस से आते हुए अपनी पेट पूजा करके आती और  घर में ऐसे ड्रामा करती जैसे उसने सुबह से कुछ भी नहीं खाया और कोई उसकी परवाह नहीं करता , उसका यह बहाना करके , घर के छोटे मोटे काम से भी हाथ खींचने का नाटक भर होता , मैं ऑफिस से कब आता , क्या खाता पीता  , उसे इन सबसे कोई मतलब ना था, उसे मतलब था , बस महीने के महीने उसे खर्चने के लिए पैसे मिले और हर दूसरे  तीसरे दिन उसे बाहर घूमता  फिरा दूँ ...



उसकी और मेरी थोड़ी सी मस्ती घर वालो को बड़ी चुभती , मेरी माँ और बहन आए दिन मुझसे उसकी शिकायते करती , घर में चैन से रहना जैसे मुमकिन ही ना था  कभी बीवी और माँ का झगडा तो कभी बाप का बहन से झगड़ा तो कभी माँ बाप का झगडा , होना जरुर था ...मैं क्या सोचकर रीजनल ऑफिस से आया था , लगता था जैसे एक जहन्नुम में चला आया ...



इन सबसे फुर्सत मिलती तो , मेरी माँ मेरा दिमाग खाने चली आती , की मैं बहन की शादी का क्या  कर रहा हूँ , मैंने  तो उसे वचन दिया था , की मैं उसके लिए लड़का देखूंगा ....अभी इन सबसे मैं संभलता की , बीवी ने आकर घर में एक  नया शगुफ़ा  छोड़ दिया , की एक  हफ्ते के अन्दर  उसे अपने ऑफिस के काम से तीन महीनो के लिए इंग्लैंड जाना है ...



लगता था , उसका मेरा उसका थोड़े वक़्त से ज्यादा एक  साथ रहना किस्मत में लिखा ही नहीं था , शादी के वक़्त मैं टूर वाली जॉब में था , शादी के दो महीने बाद ही  कुछ महीनो के लिए यूरोप चला गया , वहां  से आया तो वह प्रेगनेंसी  के कारण कुछ महीनो के लिए मायके चली गई , वापस आई तो , मुझे नौकरी के कारण दुसरे शहरों  में भटकना पड़ा , अब जब मैं वापस आया तो , वह  फिर दूर जा रही थी ...मैंने  खुदा से पुछा , यह आखिर हो क्या रहा है , हम क्या कभी साथ में कुछ वक़्त के लिए रहंगे भी या नहीं ?



पर उस वक़्त मुझे क्या मालुम था , मैं विश डेविल से अपने लिए ख़ुशी नहीं जीवन भर की मुसीबत मांग रहा था ... 



क्रमश :  ............

By 
Kapil Kumar 



Note: “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. Resemblance to any person, incident or place is purely coincidental.' ”

सबसे बड़ा निर्धन !


बहुत पुरानी  बात है , एक  बार बोधिसत्व  ने राज परिवार में जन्म लिया । उसी वक़्त, राजा  के मंत्री के यंहा भी एक  शिशु ने जन्म लिया ।कालांतर में इस शिशु का नाम "कपिल " रखा गया । दोनो बच्चों  ने अपना शैशव   काल एक  साथ खेलते हुये गुज़ारा  ।वक़्त के साथ बच्चे व्यस्क हो गए । बोधिसत्व   ने राज पाठ सभाला तो "कपिल " को मन्त्री पद से नवाजा ।महाराज बोधिसत्व ने कभी मंत्री "कपिल " को अपना सेवक नहीं समझा , हमेशा उससे अपने परम सखा जैसा व्यव्हार और आदर दिया ।

राज दरबार में नाना प्रकार के दरबारी थे जो राजा का मनोरंजन करते और बदले में खूब धन दौलत पाते थे  । पर महाराज ने यह कृपा मंत्री "कपिल " पर कभी नहीं की  और महाराज की इस अनदेखी को मंत्री ने भी ज्यादा तवज्जो नहीं दी । पर वक़्त की आवश्यकताओ ने धीरे धीरे मंत्री के मन में यह संशय डाल  दिया । की महाराज उसकी योग्यता का मूल्यांकन  सही नहीं करते ! मंत्री के अन्दर चलने वाले इस अंतर्द्वंद  को राजा बोधिसत्व ने पहचान लिया |

एक  दिन राजा ने मंत्री से कहा , मंत्री जी  आज आप हमारे साथ शाम भेष बदल कर राज भ्रमण पर  जायेंगे " ! जो आज्ञा  कह मंत्री ने शाम को अपना भेष बदल आने का वादा कर, वहां  से विदा ली और शाम को दोनों एक  सामान्य मुसाफिर का भेष धारण कर राज भ्रमण पर निकल पड़े ।

 रास्ते में उन्हें एक  आदमी दिखाई पड़ा जो सडक पर बैठा भीख  मांग रहा था
राजन बोधिसत्व ने कहा ...मंत्रीजी, यह आदमी कल तक बहुत धनवान था पर इसने  सारा धन व्यापार में खो दिया, अब यह दाने  दाने  को मोहताज़ है ।

कुछ दूर चलने पर उन्हें एक  बहुत बड़ी दुकान पर एक  सेठ बैठा दिखाई दिया । जिसके सामने नाना  प्रकार के भोजन थे पर , वह  उन्हें सिर्फ़ निहार रहा था , मंत्री ने पूछा , राजन , यह सेठ भोजन ग्रहण क्यों  नहीं कर रहा । राजन ने उत्तर दिया............
इसका स्वास्थ्य इसे इसकी इजाजत नहीं देता , इसलिए यह सिर्फ देख कर प्रसन्न हो जाता है ।

 थोडा दूर और चलने पर उन्हें एक  ब्राहमण दिखाई दिया........., जो एक  स्वान के मुंह में हाथ डाल उसके दाँत गिनने की चेष्टा कर रहा था ।
मंत्री के लिए यही दृश्य  बड़ा ही विचित्र था।.......उसने प्रश्नवाचक नज़रों  से राजन की तरफ देखा ? राजन बोधिसत्व ने मंत्री "कपिल" की जिज्ञासा शांत करते हुए कहा ......." मंत्रीजी  "  यह कल तक एक  प्रकांड विद्वान था , अपने ज्ञान के नशे में इसने एक  कुम्हार से शास्त्रात  कर लिया और
उसमे "गधे " का अर्थ न बता पाने के कारण हार गया , तब से यह अपना मानसिक संतुलन खो चूका है ।

चलते चलते राजा और मंत्री शहर की सीमा के बहार जंगल तक आ गये ।अब तक रात का तीसरा पहर बीत चूका था  और मंत्री का ध्यान वापस घर जाने को हो रहा था ,की दोनों की नज़र एक  इन्सान पर पड़ी जो , बड़ी शीध्रता के साथ , हाथ में एक  पोटली उठाये भगा जा रहा था । दोनों ने जब उसे ध्यान से देखा तो पता चला वोह राज्य का महामंत्री था , मंत्री "कपिल" का मुंह खुल्ला का खुल्ला रह गया , उसने राजन की तरफ देखा तो , राजा बोधिसत्व ने मुस्करा  कर कहा , इस पर देश द्रोह का आरोप लगा था , जिसकी खबर शायद इसे लग गई है .....
कल इसे सबके सामने अपमानित न होना पड़े इसलिए यह सबकुछ छोड़ छाड़  कर देश छोड़ कर जा रहा है ।

 राजा बोधिसत्व ने मंत्री से कहा....... तुम्हें हमने कभी अपने से अलग नहीं समझा.... बताओ........ तुम्हरे पास किस वस्तु की कमी है ? तुम्हारे पास भोजन ,वस्त्र , घर है ,तुम शारीरिक रूप से स्वस्थ भी हो............ तुम्हरी सलाह के बग़ैर  हम कोई महत्वपूर्ण  कार्य भी नहीं करते और तुम्हें  सबसे ज्यादा मान  -सम्मान भी देते हैं .............फिर भी तुम्हे किसी चीज की आवश्यकता थी तो तुम हमसे बोल सकते थे....... पर तुमने यह भाव रख की हम तुम्हारा ध्यान नहीं रखते करके हमारा दिल दुखा  दिया है ।

इसलिए यह राज पाठ तुम्हे छोड़ हम सन्यास को जा रहे हैं ।

 राजन की बात सुन मंत्री बड़ा लज्जित हुआ उसे अपनी गलती का तत्काल  आभास हो गया वह  बोला , महाराज मुझे क्षमा  करे , वैभव को मैंने  आपके स्नेह से ऊँचा स्थान दिया ।
जब आप ही नहीं तो ,यह राज पाठ अब मेरे किस काम का । क्या आत्मा के बैगर शरीर  का कोई अर्थ है ?

 बोधिसत्व ने कहा , मंत्री हमारा जाने का निश्चय  तो अटल है.......... अगर तुम हमें यह बता सको की सबसे बड़ा "निर्धन" कौन था............ तो हम अपने गंतव्य की तरफ प्रस्थान करे............... जो आज्ञा कह.......... मंत्री कपिल ने कहना शुरू किया..................

महाराज...... सबसे बड़ा "निर्धन" मैं हूँ ......जो आपके सामने खड़ा है , बोधिसत्व ने रहस्यमयी  मुस्कान भाव से पुछा ..... कैसे मंत्रीवर  ?
 मंत्री कपिल ने कहा , महाराज ................:

जिसने धन गंवा  दिया उसने कुछ खो दिया , जो वह आने वाले समय में फिर पा  सकता है ।.............

जिसने स्वास्थ्य खो दिया उसने थोडा ज्यादा खो दिया........... क्योंकि वह  धन का उपयोग नहीं कर सकता............. पर थोडा परिश्रम से वह  उसे वापस भी पा सकता है ।..................

जिसने "ज्ञान" खो दिया , उसके लिए धन ,स्वास्थय का होना न होना कोई मायने नहीं रखता , पर थोड़े यतन और जतन से उसकी प्राप्ति संभव है !


जिसने "चरित्र " खो दिया उसके लिए न तो धन ,स्वास्थय ,ज्ञान का कोई अर्थ ? अपने मूल और आचरण को सुधार कर.. इसकी प्राप्ति भी संभव है ।

 पर.... सबसे बड़ा निर्धन तो मैं हूँ ......जिसने "प्रभु" को खो दिया अब मेरे लिए इस धन ,स्वास्थय ,ज्ञान, और चरित्र का होना न होना कोई मायने नहीं रखता" मेरी तो अब इस जन्म में मुक्ति भी संभव नहीं ।

 बोधिसत्व "मंत्री" के ज्ञान से थोडा प्रभावित हुए और बोले.....
कमान से निकला तीर और जुबान से निकला वाक्य तो फिर भी बदला जा सकता है पर मन में आया भाव बदलना इतना आसन नहीं|................

 अगर तुम्हे मुक्ति चाहिए तो तुम्हे इसके लिए प्रायश्चित  करना होगा ।........    कैसा प्रायश्चित  प्रभु "मंत्री" ने बड़ी दीन भाव से पुछा ?.......

 तुम्हे मनुष्य योनी में एक  "नास्तिक" के रूप में तब तक जन्म लेना होगा और बिना अपनी "आस्था "  खोय और बिना कोई आडम्बर किये  मुझे पाना होगा।

 तभी तुम्हारी मुक्ति संभव है और  ऐसा कह "बोधिसत्व" घने जंगलो के अंधरे में खो गए ।

Note:- मंत्री कपिल की मुक्ति कैसे होती है उसके किये पढ़ें  

मुक्ति

Wednesday 20 January 2016

पूछ लेना.....





मुझपर  शक करने से पहले , इन फ़िज़ाओं  से पूछ लेना 

मेरी वफ़ा पर  , ऐतबार ना हो तो , उन रातों से पूछ लेना

किसका किया है इंतजार , यह उन लम्हों से पूछ लेना

मैंने किससे  की है मोहब्ब्त , यह बात खुद अपने दिल से पूछ लेना

By
Kapil Kumar

Wednesday 6 January 2016

तुझसे मोहब्बत करके.........




सोचता हूँ मैं ...

तुझसे मोहब्बत करके, मुझे क्या क्या मिलेगा 
इस जिस्म को ,सकून तू देगी नहीं ,
सिर्फ दर्द ही मिलेगा ....
जिसका मरहम, तेरे पास है ही नहीं 
ऐसा जख्म तुझसे, जरुर मिलेगा 
तुझसे मोहब्बत करके.........

मुझसे ना मिलने के बहाने , तू हर दिन बनाएगी 
कभी प्यार से तो कभी लताड़ से, मुझे डराएगी 
इन सबसे भी ना बहला तो ,ज़माने का खौफ़ दिखाएगी
तेरी इन हरजाइयों  का अहसास, हर दिन मुझे मिलेगा 
तुझसे मोहब्बत करके.........

गमो को एक  दिन, अपनी तक़दीर बना लूँगा 
अपने आपको जीते जी, दोज़ख  में जला लूँगा 
ऐसी सौगातों  का तोहफ़ा , जरुर यादगार मिलेगा 
तुझसे मोहब्बत करके.........

रुसवाईयां भी दामन में ,सिमटी चली आएँगी 
ज़लालत  भी ख़ुशी से , मुझे गले लगाएगी 
शहर का हर शख्स  , मेरे नाम पर  हंसेगा 
तुझसे मोहब्बत करके.........

इन सबसे भी मैं ना माना, कल अगर 
हो गया फ़ना तेरी मोहब्बत में, एक  आशिक बनकर 
मेरी मोहब्बत का और ही किस्सा, तू सबको सुनाएगी 
हँसेगी महफ़िल में , अकेले में खुद को रुलाएगी 
तेरे इन हालातों पर  , मेरी रूह का दिल भी जलेगा 
तुझसे मोहब्बत करके.........

By
Kapil Kumar

Tuesday 5 January 2016

यादें......




जब दर्द, इस कदर बढ़ जाता है 
एक  वक़्त के बाद , दर्द खुद दवा बन जाता है 
आँसू  स्याही बन जाते है 
दिल के टुकड़े , इसमें डूब खुद कलम बन जाते है .....


टूटे टुकड़े इसमें रम कर ,नए नए अफसाने लाते है 
इन अफसानों  को समेटने के लिए 
तब यादें  किताब बन जाती है 
जो दर्द कल तक रुलाता था 
वही कल जीने का बहाना बन जाता है....... 

By
Kapil Kumar 

Sunday 3 January 2016

नारी की खोज --- 10


अभी तक आपने पढ़ा (नारी की खोज भाग –1 , 2 , 3,4 ,5 ,6 ,7 ,8 और 9 में ) ....... की मैंने बचपन से आज तक नारी के भिन्न भिन्न रूपों को देखा .......मेरे इस सफर की आगे की कहानी.....



गतांक से आगे .......


प्रेम या मोहब्बत क्या है  ? अगर इसकी खोज में निकले तो यह ब्रह्माण्ड  भी शायद कम पड जाए , की किसकी बात सही माने और किसकी गलत ...क्योंकि  प्रेम के अनेक रूप होते है , मानव द्वारा लिखा गया अधिकतर  साहित्य , कविताएं  , गजल और शायरी इत्यादि सब इसी ढाई अक्षर के इर्द गिर्द ही सिमटा पड़ा है ।


फिर नारी से प्रेम या नारी का प्रेम, यह एक  अनुभव करने की चीज है ।  शायद मेरे जीवन में हुए अनुभव भिन्न भिन्न नारी से अलग अलग रूप में हुए ...पर सबमे एक  बात कॉमन थी ...की सबने मेरी भावना को समझा , मुझे सम्मान के साथ प्रेम भी दिया , सिवाय , उसके जिसका यह सामाजिक धर्म था ... आज उम्र के, इस पड़ाव पर पहुँच कर देखता हूँ तो लगता है , आज तक मैंने  अपने प्रेम और  ख़ुशी के बदले जो भी सौदा किया सब घाटे का ही निकला ... जिन जिन रिश्तो की ख़ातिर  मैंने अपनी खुशियों की क़ुरबानी दी , सब जैसे व्यर्थ हो गई , एक  बात निर्विवादित  रूप से सच है की ..जीवन में ...


कोई किसी का इंतजार नहीं करता और ना ही कोई किसी की वफ़ा का ऐतबार करता है ।  लोगो की याददाश्त बहुत ही कमजोर होती है या अधिकतर रिश्ते सिर्फ मतलब और झूठ की बुनियाद पर अपने वक़्त की ज़रुरत  पूरा करने के लिए सिर्फ टिके भर होते है ....


लता बिस्तर से इस तेजी से निकल कर भागी थी कि एक  बार को, मुझे लगा की, मैं जैसे सपने से जाग गया हूँ ...क्योकि इतने दिन,किसी को जानने के बाद, उसका यूँ अचानक से करीब आना और नजदीक आकर हाथ से मछली की तरह फिसला जाना , अपने आप में ही एक अनुभव था...


उस दिन से ,लता ने... मेरे घर आने का समय बदल लिया , अगले दिन वह  सुबह सवेरे काम करने आ गई और चुपचाप काम करके चली गई ।  उसने मुंह  से एक शब्द भी नहीं कहा और ना ही मेरी तरफ देखा , मैं भी नींद में उंघा पड़ा था ।  मुझे उसके इतनी जल्दी आने का अंदेशा ना था , इसलिए किसी भी तरह से तैयार ना था ,मुझे उसके इस बदले व्यवहार  से बहुत हैरानी हुई , फिर मैंने मन में सोचा, शायद वह  उसका , एक  दिन का भावनाओं का बहाव रहा होगा ...


मेरा कमरा, मकान में सबसे ऊपर था और सर्दियों में वैसे भी दोपहर से पहले कोई छत पर झाँकने  आता नहीं था ।  इसलिए मैं अपने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद करके नहीं सोता था , मेरे पास ऐसा कुछ ना था , की कोई उसे चुरा ले , पर्स में कुछ पैसे , घडी , एक  सेल फोन और कुछ कपडे ...हाँ सेल फोन जरुर मुझे हिफ़ाजत  से रखना होता था ...


उस वक़्त, राज्य में सिर्फ मुझ जैसे कुछ टेक्निकल लोगों के पास ही सेल फोन होता था ।  आम जनता ने तो इसे शायद दिल्ली या मुंबई में देखा भर था .....क्योकि जिस कम्पनी के लिए मैं काम करता था , उसने ही प्रदेश में सबसे पहले, सेल फोन सेवा चालू करने का सरकार से लाइसेंस लिया था और उसी के सिलसिले में ,मै हेड ऑफिस द्वारा राज्य में मोबाइल सर्विस लांच करने के लिए , कम्पनी के ब्रांच ऑफिस में फोन एक्सचेंज का काम देखने आया था...


करियर में वह  मेरा सुनहरा दौर था ।  उस वक़्त मोबाइल कंपनी में काम करना , करियर के लिए एक  बहुत बड़ा टर्निंग पॉइंट था , उन दिनों नौकरी में मुझे एक  अच्छी खासी तनख्वा के अलावा , टूर अलाउंस और हर वक़्त के लिए ड्राईवर वाली कार भी मिली हुई थी.....


फिर भी मैं, हर दूसरे  हफ्ते दो दिनों के लिए अपने घर चला जाता था ।  तब घर वाले और बीवी अपनी शिकायतों  और शिकवों  की पोटली लेकर बैठ जाते कि की मेरे ना होने से उन्हें कितनी परेशानी हो रही है ।  पर मेरी जेब से निकलते नोटों की खुशबु , उनकी हर परेशानी और जरुरत का ऐसा हल बनती की कोई उसके बाद कुछ ना बोल पाता ।  मैं जब भी घर जाता , घर वालो को उनकी जरूरत से ज्यादा ही देकर आता .... मैं जब भी वापस आता, मेरा लड़का, जो उस वक़्त उम्र में साल या डेढ़ साल का होगा , मुझे जाते देख बहुत रोता ... उसे यूँ रोता हुआ छोड़ते वक़्त मुझे बहुत बुरा लगता , पर मेरी भी मज़बूरी थी....


मेरी नौकरी की यही शान देख कर, मेरा पुराना मकान मालिक, मेरे पीछे अपनी लड़की लेकर पड़ा था , जिससे मैंने  उसका मकान छोड़ कर अपना पीछा छुड़ाया ... नया मकान मालिक और अड़ोसी पडोसी  , सब मुझसे बहुत ही संभल कर बात करते थे...


लता के सुबह सुबह आने से, अब मेरी नींद ख़राब होने लगी थी ,मैं रोज सुबह इस चक्कर में उठता की वह  बिस्तर पर आएगी , पर वह , काम करके तुरंत फुर्र हो जाती ...जब दो तीन दिन ऐसे बीत गए तो मैंने  भी सोचा , लगता है यहां , अब दाल ज्यादा  देर नहीं गलेगी .....


शनिवार का दिन था , उस दिन मैं ऑफिस दोपहर में, सिर्फ नाम के लिए जाता था ..मैं नींद में ऊंघ रहा था । मैंने  घडी देखी  की सुबह के 10  बज चुके थे , पर लता अभी तक काम करने नहीं आई थी ।  मुझे लगा , लगता है शायद आज छुट्टी मार ली हो ।  मुझे उसके आने या ना आने से कोई फर्क नहीं पड़ता था , वैसे भी मेरा कमरा ज्यादा गन्दा नहीं होता था और बर्तन मेरे पास इतने थे की हफ्ते भर भी ना धुलते, फिर भी मेरा काम हो जाता ....


अचानक से, कमरे का दरवाजा खुला और किसी सस्ते से पाउडर की खुशबु  का झोका मेरे कमरे में घुस आया । मैंने एक आँख खोलकर देखा तो , लता कमरे में आई हुई थी ...आज उसने एक  साफ़ सुथरी साड़ी पहनी थी और लगता था, घर से नहा  धोकर आई थी ...उसने जल्दी जल्दी झाड़ू लगाई और कुछ बचे खुचे  बर्तन धोने बैठ गई ।  तभी मैं भी उठा और बाथरूम में ब्रश करने चला गया और वहां  से हाथ मुँह  धो बिस्तर पर आकर बैठ गया ...मेरे बाथरूम से निकलने के बाद , उसने वहां  का रूख किया और कपडे धोने बैठ गई , जब तक उसने कपडे धोकर सुखाये , मैंने अपने लिए चाय बना ली ,अभी मैं, चाय ख़त्म करके बिस्तर पर आकर लेटा ही था ... तभी बाहर  से कपडे सुखाने के बाद , लता कमरे में आई और दरवाजे पर कुण्डी  लगा कर, बिस्तर पर मेरे बराबर में आकर लेट गई ...


मुझे उसकी इस हरकत पर हैरानी के साथ एक  ख़ुशी सी हुई , उसने अपने ठन्डे ठन्डे हाथ मेरे गाल पर लगाये और फिर अपने एक  हाथ को मेरे कुर्ते  के अंदर डाल दिया और मेरी छाती को सहलाने लगी .... उसके बर्फ जैसे हाथ को मैंने  अपने गर्म गर्म गाल पर किसी तरह से बर्दाश्त कर लिया , पर छाती पर  घूमता उसका ठंडा हाथ मुझे करंट जैसा लगा ....वह  फुसफुसाते हुए बोली , आजकल बहुत ठण्ड हो गई है और ऐसा कह उसने अपना ठंडा ठंडा बदन ,मेरे गर्म बदन से चिपका लिया ...बाहर  ठंडी हवा, सांय सांय करके चल रही थी और कमरे के अंदर उसकी सांसो से निकलती गर्म हवा मेरे चेहरे को छू  रही थी ...


मैंने  उसके हाथ को ,अपने कुर्ते  से बाहर निकाला और उसके ऊपर लेट गया , वह  भी किसी पेड़ की लता की तरह मुझसे लिपट गई , जैसे कोई अमर बेल किसी पेड़ का सहारा पाकर उसपर  अपनी जकड़ बना ले ... आज मैंने  उसके होठों को चूमने की गलती नहीं की ।  मेरा पहला अनुभव, मेरा मुँह  कसैला कर चूका था ।,मुझे होठों को चूमता न देख , वह  जैसे मेरे मन के भाव को समझ गई और मेरी तरफ मुस्कुराते हुए देखने लगी ....मैंने  उससे पुछा ,क्या तुम बीडी या सिगरेट पीती हो ?


उसने हँसते हुए कहा नहीं तो , फिर बोली... वह  क्या है मैं दातुन करती हूँ , शायद उसकी गंध होगी , आज मेने तुम्हारे लिए मंजन किया है ....फिर भी मैंने  उसके होठों से अपनी दूरी  बना कर रखी ,आज मेरा ध्यान उसकी नाभि और और छाती पर था... जैसे ही मैंने  उसके ब्लाउज को आगे से ऊपर करना चाहा ,तो वह बोली अरे तुमसे हुक टूट जायेगा, लो में कर देती हूँ और ऐसा कह उसने खुद अपने आप अपना ब्लाउज और ब्रेसियर  अलग करके बिस्तर के नीचे रख दिया....


जब पहली बार मैंने  उसे बिस्तर पर गले लगाया था , तब उसके शरीर से, एक  अजीब किस्म की बदबू आई थी , जैसी किसी पोछे वाले कपडे को छूने  के बाद हाथ से आती है...आज वह  बदबू उसके शरीर से बहुत हल्की  सी आ रही थी....शायद उस दिन उसे, मेरे मन की वितृष्णा  , मेरे बिना कहे ही पता चल गई थी.....आज उसने मेरी भावनाओ का ख्याल रखते हुए, मुँह  मंजन से और शरीर रगड़ कर धोया था , साथ में पुरे जिस्म और चेहरे पर हल्का फुल्का पाउडर भी  लगाया था ... इतना करने के बाद भी , वह  मेरे लिए, प्यास बुझाने का एक  गन्दा सा तालाब भर थी , जिसका पानी साफ़ होते हुए भी पी कर तृप्ति करने लायक कदापि ना था , फिर भी उससे मैं, अपने योवन की प्यास बुझाने के लिए बेताब या मजबूर था ....


अब वह , मेरे सामने अर्द्धनग्न  स्थिति में थी , आज उसके गालों से लेकर उसकी नाभि को मैंने  जी भरकर चूमा और उसके उरोज़ों  और निप्पल को मन मर्जी से उमेठा .... चूमने और चूसने लायक कसाव और उठाव उनमे ना था ...वह  ऐसे लगते थे जैसे बिना गुठली का पोपला आम, जिसके ऊपर एक  पिचकी हुई किसमिस चिपका दी गई हो ... वोह आँखे बंद किये उन सबका आन्नद ऐसे लेने लगी, जैसे वह , कोई मीठा सपना देख रही हो ....गंदे तालाब से जी भरकर पानी पीने के बाद , अब मेरी ,उसमे पूरी तरह से डुबकी लगाने की इच्छा हो रही थी ... इसी चूमा चाटी में ,पता नहीं कब उसकी साडी खुल कर बिस्तर में हम दोनों के नीचे कहीं  दब चुकी थी , उसके शरीर पर कपड़ो के नाम पर सिर्फ एक  पेटीकोट शेष बचा था ...


मुझे मेरी मंजिल सामने दिखलाई दे रही थी , मैंने आनन फानन  में अपना कुर्ता  और बनियान उतार फेंका ।  मैं अभी पजामे का नाडा खोलने ही वाला था की , उसने मेरा हाथ पकड लिया और बोली ...***इसे काबू में रखो**** , जिस भाषा में वह  बोली ,उसे सुन ,मेरा दिमाग घूम गया ..आज से पहले मैंने ,वह  भाषा, सिर्फ मस्तराम की किताब के कुछ पन्नो में पढ़ी थी ...


अचानक उसने, अपनी टांगो की एक  कैंची सी बना कर, मेरी दोनों टांगो को क्रॉस करके उनके अन्दर फंसा लिया और अपने दोनों हाथो को मेरे गले में, हार जैसा एक  फंदा बना कर, ऐसे डाल लिया, की , उसके शरीर की गिरफ्त में फंसा , मैं ऐसे लग रहा था , जैसे किसी अजगर ने, किसी शेर को अपने अन्दर लपेट लिया हो... अब मैं चाह कर भी, अपनी जगह से ज्यादा हिलडुल नहीं सकता था...


आज से पहले, ऐसी स्थिति, मेने कुश्ती करते हुए दो पहलवानों के बीच या लड़कपन  में जब मैंने  जुडो सीखी तब देखी थी ।  इसमे एक  तरह का एक ग्रिप लॉक होता है , जिसमे फंस कर सामने वाला बेबस हो जाता है ... इस स्थिति में मुझे बेबस देख कर, वह  हंसने लगी और मेरे गालो और छाती को बेतरबी से चूमने लगी .....


मैं भी उसकी गिरफ्त में फंसा हुआ उसकी इस हरकत का मजा लेने लगा ... अगर मैं चाहता तो उसकी गिरफ्त से अपने को आजाद करा सकता था , पर उसमे मुझे थोड़ी बहुत जोर आजमाइश करनी पड़ती और ऐसा करने से, मेरा मासूम फोल्डिंग पलंग जरुर शहीद होजाता .... पहले ही उसपे दो लोगो का बोझ थोडा ज्यादा था ...जब उसकी गिरफ्त थोड़ी ढीली हुई , मैं भी जोश में, उसके उरोजो को बेतरबी से काटने और मसलने लगा ......अब उसके मुँह  से जोर जोर की मीठी सी सिसकियाँ निकलने लगी .....कभी कभी उसे मुंह  से “हाय री दइया” निकल आता था .... उसकी यह हालत देख ,मुझे लगा की लोहा अब गर्म हो चूका है , अब इसपे चोट करना सही रहेगा , इसलिए मैंने  मौका देख उसके पेटीकोट के अंदर हाथ डाल दिया ....


मेरा हाथ डालना था , की वह एक  गुर्राती हुइ शेरनी की तरह सतर्क हो गई और मेरा हाथ खींच  कर बाहर  निकाल दिया और उसे कस कर पकड लिया , फिर मस्तराम वाली भाषा में बोली, “अपने **इसको” काबू में रखो , वरना यहीं  काट दूंगी , फिर मेरे पजामे को घूरती हुई बोली , तुम्हारा “**वोह” बहुत जल्दी अकड़ कर, पानी छोड़ने लगता है .... उसके मुँह  से, वह  सब बाते मेरे कानो में एक  गर्म गर्म पिघले शीशे की भांति उतरने लगी ...जिसे मैं शब्दों में कह भी नहीं  सकता ....उस दिन मुझे पता चला की मस्तराम किसने और किसके लिए लिखा होगा ...


वह  उसकी भाषा थी , पर मेरे लिए, किसी नारी की ऐसी भाषा , मेरे जैसे प्रेम पथिक के मन को विचलित करने वाली थी ..सेक्स में हलकी फुलकी छीना झपटी , नोच खसोट और धक्का मुक्की तो मुझे मंजूर थी , पर उसकी निम्न स्तर की भाषा ने मेरे अरमानो को एक  दम ऐसे ठंडा कर दिया , जैसे उबलते दूध पर  किसी ने ढेर सारा ठंडा पानी उड़ेल दिया हो ...


मैंने  उसके जिस्म से अपनी पकड ढीली कर दी , अब वह  मुझे एक  औरत न लगकर , सेक्स बेचने की ,गन्दी सी बाजारू ठेली भर लग रही थी ...जिसपर मैंने  भूख में, कुछ खाने का मन तो बना लिया था परन्तु अब असमंजस में था की खाऊँ की न खाऊं  , उस दिन मैंने  जाना की...


इन्सान क्रोध , नशे और सेक्स के आवेश में ही अपना असली चेहरा,पहचान और चरित्र दिखलाता है ..


मुझे सेक्स और प्रेम में, एक  हद के बाद, जो आजमाइश है वह मुझे अच्छी नहीं लगती , इसलिए जब उसने मेरे हाथ को कसकर पकड लिया , फिर मैंने  उसे पाने का ख्याल त्याग दिया , सोचा जब इसे... खुद जरूरत  होगी , तब यह खुद पहल करेगी , वैसे भी उसकी भाषा सुनने के बाद , उससे मुँह  जोरी करना और बिस्तर पर नुरा कुश्ती करना मुझे अच्छा ना लगा ...


थोड़ी देर की लिपटा चिपटी के बाद उसने अपनी साडी पहनी और बोली ,चलो मैं चाय बना दूँ .... यूँ तो मैं चाय पहले ही पी चूका था , मैंने  उसे कोई जवाब ना दिया ,चाय बनाते वक़्त उसने मुझसे अपनी मस्तराम टाइप भाषा में कुछ बातें  की , जो शायद वोह अपनी पति से करती , सुनती और कहती होगी ... जिसे मैंने  बड़े अनमने से मन से सुना , मेरा जोश, उसे लेकर अब पूरी तरह से ठंडा पड़ चूका था .....


उसकी बनाई हुई चाय की , जैसे ही मैंने एक  चुस्की ली ,तो पूरा का पूरा मुह अजीब सा कैसेला हो गया , मेरी और उसकी चाय की पसंद एकदम  अलग थी ,चाय निहायत ही मीठी और चाय पत्ती से भरपूर एक  दम काली सी थी... फिर भी मैंने उसके सामने एक दो घूंट पिए और कप को बिस्तर के नीचे  सरका दिया ...चाय ख़त्म करके , उसने एक मुस्कराहट  मुझपे डाली और कमरे से बहार निकल गई ....


उस दिन के बाद से, उसके और मेरे बीच एक  अघोषित सा समझौता हो गया ,की सोम से शुक्र वह  सुबह सुबह आती और चुपचाप काम करके चली जाती ... शनि और रविवार को काम निबटाने के बाद ,वह कुछ देर मेरे साथ बिस्तर पर गुजारती... वह  मेरी पसंद न थी पर शरीर की वक्ती तौर पर एक  जरूरत जरुर थी , उस गंदे तलाब में नहाने की ,मैंने  अपनी तरफ से बहुत कोशिश  की , किसी तरह उसमें पूरी डुबकी लगा लूँ , पर मेरी सारी कोशिशें  नाकाम हुई ...


उसने अपनी सीमा की एक  लक्ष्मण रेखा खिंची हुई थी , जिससे आगे उसे कभी बढ़ना ही ना था .... मैं जब कभी उसके साथ बिस्तर पर चिपक कर लेटा हुआ होता , तो रोनी की बीवी के साथ हुई घटना याद आ जाती , की कैसे, उस वक़्त मैं उसके शरीर की गर्मी से, कुछ ही मिनटों में मक्खन की तरह से पिघल गया था और अब लता से घंटा भर चिपके रहने के बाद भी , मैं अपने ऊपर काबू रख सकता था , कितनी अजीब बात थी ...


जब मुझे घुड़सवारी नहीं आती थी , तब मुझे घोड़ी अपने ऊपर चढाने के लिए तैयार थी और अब, जब मैं मंझा हुआ घुड़सवार था , घोड़ी को सिर्फ दाना खिलाने , उसपे नकेल चढाने और उसकी पीठ सहलाने तक सिमित था ....


कुछ ही दिनो में, वह  मेरा कमरा ऐसे समझती जैसे उसका घर हो , जब उसकी मर्जी होती चाय बनाती और पीती , शुरू शुरू में तो वह  मेरे लिए भी बनाती , जब उसे लगा की मुझे उसके हाथ की चाय पसंद नहीं तो उसने मेरे लिए बनानी बंद कर दी ... वह अक्सर मेरे लिए खाना बनाने की जिद करती , जिसे मैं हंस कर टाल देता ... तब वह  मुझे उलाहने देती और कहती .... अच्छा मैं नीचे  तबके की हूँ इसलिए मेरे हाथ का खाना नहीं खाना चाहते ....


जबकि सच्चाई यह थी , अक्सर उसके बदन से,पोछे के गंदे कपडे जैसी बदबू आती थी , जिस्मानी जरुरत के लिए उसे सहना एक  बात थी ...पर उसके हाथ का बना खाना खाना दूसरी बात , वैसे भी मैं , किसी ठेले या सडक छाप दुकानों से कभी खाता नहीं था ...बस एक चाय ही इसका अपवाद थी , जिसे मैं, किसी भी खोखे या सडक की दुकान से पी लेता था .....


मेरे लिए सेक्स भी उसी चाय की प्याली की तरह था , जिसके लिए मैं अपने आदर्शो की क़ुरबानी एक  हद तक ही दे सकता था ...


फिर भी वह , अपनी तरफ से कोशिस करती थी , की मेरे लिए अच्छे से सजधज सके और साफ सुथरी बनकर रहे ...पर उसका काम ही ऐसा था , जिसमे शायद यह सब मुमकिन ना था , फिर भी ठण्ड की उन सर्द हवाओं  के बीच , उसके जिस्म की गर्मी , ऐसे थी जैसे रेगिस्तान में भटकते प्यासे पथिक के लिए पानी की दो बूंद ....जिसे होठो पर लगाने से ,सिर्फ पानी होने का अहसास भर किया जा सकता था , पर उससे प्यास नहीं बुझाई जा सकती थी ....


मैंने  उसे कई बार कहा , तेरे लिए मैं अच्छे कपडे खरीद कर दे देता हूँ , पर वह मुस्करा कर कहती , हाँ , वह  भी लुंगी , दिवाली पर , मैं तुमसे इक अच्छी सी साडी लूंगी  .... मैं हैरान होता और पूछता दिवाली पर ही क्यों ? उसका जवाब होता... बस दिवाली पर  ही ....शायद उसका रिश्ता मुझसे जिस्म से ज्यादा किसी मानसिक सहारे का था ....जिसके बदले वह  मुझे अपना थोडा सा जिस्म दे देती थी या उस वक़्त उसके अन्दर की कामवाली बाई जाग जाती थी ...


हमारे शारीरक मिलन का यह सिलसिला सिर्फ कुछ ही दिन चल पाया , कि एक  रीजनल  ऑफिस से कंपनी के सी. ई. ओ का फोन आया , की मुझे अगले ही दिन से रीजनल ऑफिस में आकर काम देखना है और मेरी पोस्टिंग कुछ महीनो के लिए वहां  कर दी गई है .....हमारा रीजनल ऑफिस , उस शहर से करीब २  घंटे की दूरी पर  था ...इसलिए मुझे अब, यह शहर हमेशा हमेशा के लिए छोड़ कर जाना था ....


शनिवार का दिन था , नहा धोकर मैंने  अपना थोडा बहुत सामान, जो कमरे में इधर उधर फैला हुआ था , इकठ्ठा  करके बांध रहा था ... अभी मैं सामान बांध ही रहा था , की  लता कमरे में आई , उसने हैरानी से पुछा , यह सब क्या है ? वह  शायद महीने का पहला हफ्ता था ,कुछ दिन पहले ही मैं उसे पिछले महीने का पैसा दे चूका , फिर भी मैंने , पुरे महीने के पैसे निकाल कर उसके हाथ पर  रख दिए और बोला , मैं इस शहर को छोड़ कर , हमेशा के लिए जा रहा हूँ , मेरा यहां  से ट्रान्सफर हो गया है ... मेरी यह बात सुन, लता अपनी जगह जड़ सी हो गई , वह  मुझसे लिपट कर रोने लगी और बोली , अब मेरा क्या होगा ?


उसके यह कहने से मैं चोंका , मैं बोला , इसका क्या मतलब ? वह  रोते हुए बोली , मैं तुम्हारे बिना ना रह पाउंगी ....अब हैरान होने की बारी मेरी थी , मैं हिकारत भरे स्वर में बोला , तूने तो मुझे कुछ करने ही नहीं दिया , फिर किस हक़ से तू यह बात कह रही है ? उसने रोते हुए मेरे पांव पकड लिए और बोली , जन्हा भी तुम जाओगे मुझे अपने साथ ले जाओ ? मैं तुम्हारी दिन रात सेवा करुँगी , जैसे भी रखोगे वैसे रहूंगी , मैं एक  नौकरानी बन कर भी तुम्हारे साथ खुश रहूंगी ...


मैंने  उसे अपने से अलग करते हुए कहा , क्या बात करती है , तेरे तो तीन बच्चे है , फिर मेरा तेरा क्या रिश्ता ? बस कुछ ही बार तो तू मुझसे लिपटी भर है ... वह  मेरे गले लग गई और बोली , मैं तुम्हारे लिए अपने बच्चो को भी छोड़ दूंगी, मेरी सास उन्हें पाल लेगी, पर तुम्हारे बिना अब मैं जी नहीं सकती ....


मैंने  उसे अपने से अलग किया और अपना सामान बाँधने लगा ,वह  मुझे बेबस आँखों से देखती रही , सामान मेरे पास ज्यादा न था । मैंने  सामान को छत से नीचे  उतारने के लिए कमरे के बाहर  रख दिया .... की लता मेरे पास आई और बोली , क्या तुम सारा सामान अपने साथ ले जाओगे ?


मैं बोला , तुझे जो चाहिए वह  ले ले ,अब उसकी आँखों से आंसू गायब थे , अब एक  काम वाली बाई जैसे बात कर रही थी .... उसने बर्तन , खाने का सारा सामान , बाल्टी आदि अपने लिए रख लिया , मुझे वह  सब देने में कोई आपत्ति नहीं थी , वैसे भी मैं, उन्हें अपने साथ लेकर कंहा जाता , मेरा इरादा उसे ही वह  सब देने का था , क्योकि रीजनल ऑफिस में , मैं घर किराये पर ना लेकर , होटल में रहने वाला था , इसलिए वह सारा  सामान मेरे लिए अब बेकार ही था ....


सर्दियों के दिन थे , उस वक़्त मैंने  सर्दी से बचने के लिए एक गर्म चादर ओढ़ रखी थी , जब मैं, कमरे से चलने लगा तो लता ने कहा , यह चादर मुझे दे दो , मैंने  उसे वह  देने से मना कर दिया , उसने मुझसे कई बार उसकी मांग की और अपनी तरफ से, उसे खींचने की बहुत कोशिस भी की, पर मैंने  भी उसे अपने बदन से अलग नहीं किया ... इससे पहले , ना जाने कितनी बार मैंने  उसे साडी , सलवार सूट आदि खरीदकर लाने के लिए बोला , जो उसने कभी नहीं लिया था , पर आज एक  आम सी चादर को मैंने  मना कर दिया , शायद मैं भी उसकी धीटता का जवाब, अपनी धीटता से दे रहा था या उसके पेटीकोट को ना हटा पाने का बदला अपनी चादर से दे रहा था ....


आज मैं गंदे तालाब से दूर , एक  ऐसे गुलिस्तां में जा रहा था , जहां  आने वाले दिनों में एक  सुन्दर गुलाब का फूल, मेरी बगिया में खिलने के लिए बेताब था ... फिर भी मैंने , अपने चमकते करियर और महकते फूल को ,अपने सामाजिक  रिश्तों  और कर्तव्य की वेदी पर बलि चढ़ा दिया ....


क्रमश :  ...........


 By 

Kapil Kumar 

Note: “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. Resemblance to any person, incident or place is purely coincidental.' ”