Sunday 13 December 2015

नारी की खोज---5



अभी तक आपने पढ़ा (नारी की खोज भाग –1 , 2 , 3 और 4 में ) ...की मैंने  बचपन से आज तक नारी के  भिन्न भिन्न रूपों को देखा .......मेरे इस सफर की आगे की कहानी.....



गतांक से आगे .......


किसी इन्सान को परखने के लिए उसके बारे में तीन चीजे जानना जरुरी है , उसका व्यवहार  , स्वाभाव और चरित्र .... इन्सान जिस माहौल  या समाज में रहता है या पला बड़ा  होता, वह उसका व्यवहार  तय करता है , इन्सान जैसी परवरिश पाता है, वह  उसका स्वाभाव तय करता है और ऐसे ही कोई इन्सान बचपन में कैसा साहित्य पढता है उसके कैसे मित्र और संबंधी रहे है, वह  उसका चरित्र निर्धारित करते है .....


बचपन से मैंने  सेक्स से सम्बंधित साहित्य और एडल्ट पत्रिकाएं  पढ़ी थी , पर वे  सब किस श्रेणी के थे इसका पता मुझे कॉलेज में आकर लगा , जब लड़के आपस में कानाफूसी करते और कहते , लगता है बॉस ने “मस्तराम” बहुत पढ़ा है .... मुझे समझ ना आता की यह लोग किस संदर्भ में बात कर रहे है ...यह मस्तराम क्या बला है ?

मैं उनसे जिन जिन किताबो की या पत्रिकाओ की बात करता , वह  तो उन्होंने कभी पढ़ी ही ना थी या सुनी ही ना होती ... ऐसे ही एक  दिन, बातों  ही बातों  में मेरे हाथ किसी पढ़ाकू लड़के के कमरे में मस्तराम की किताब हाथ लगी ..... उसके कमरे में उस किताब को देख मेरा भेजा घूम गया , मुझे कभी उम्मीद भी नहीं थी कि  पढने में इतना तेज , स्वभाव का इतना शर्मीला लड़का भी ऐसी किताबो का शौक़ीन हो सकता है ? 

मैं समझता था , ऐसी किताबें  तो हमारे जैसे घुटे हुए या आवारा और अय्याश  किस्म के लोग ही पढ़ते होंगे , उस दिन पता चला की नारी तो सबके आकर्षण का केंद्र होती है , उससे  किसी मर्द की पर्सोनालिटी या स्वाभाव का कोई लेना देना नहीं , मेरा एक  मिथ क्लियर हुआ की , जो जैसा दीखता है , वह  कैसा होगा , उसकी कल्पना तो उसे परखने के बाद ही होती है ...


मैंने भी एक बार का शौक पूरा करने के लिए मस्तराम वाली किताब उस लड़के से ले ली , जो उसने बड़े झिझकते हुई दी और बोला , की मुझे उस किताब को पढने की क्या जरुरत है ? उसे पढने के बाद मुझे समझ आया ...की सेक्स का ज्ञान , हमारे समाज में क्यों वर्जित है? सेक्स सम्बंधित किसी बात को कहने का तरीका भी इतना  घटिया दर्जे का हो सकता है , यह मैंने  मस्तराम के कुछ पेज पढ़कर जाना ...उसे पढने के बाद , सेक्स  एक  घटिया शब्दावली का खेल भर लगा , जिसे एक  सभ्य इन्सान अपने जीवन में शायद ही अपनी प्रेमिका या पत्नी के सामने बोल सकने की हिम्मत कर सके ..... अजीब बात यह थी , कॉलेज में अधिकतर लड़के , मस्तराम की तरह की पत्रिकाओं  के बारे में ही जानकारी रखते और पढ़ते थे .....

उन्हें सेक्स के ज्ञान और अज्ञान में क्या फर्क होता है शायद ही मालूम था , उन्हें तो सिर्फ स्त्री और पुरुष की कामलीला से मतलब था ....कुछ लोगों ने कामसूत्र के बारे में तो सुना भर था , पर पढ़ा शायद किसी ने ही था ...


कॉलेज में मेरे ज्ञान के जो चर्चे थे , शायद मेरे मित्र भी उसी श्रेणी के तय हो गए या ऐसे लोग मेरी तरफ खींचने लगे जिन्हें ऐसे विषय में आनंद आता था , अब यह और बात थी की इस बारे में कोई अपनी राय खुलकर कभी नहीं देता था .... बड़े से बड़ा पढ़ाकू और शर्मीला , दबे  छिपे मुझसे इधर उधर की बातें  पूछ ही लेता ....पर  मौका मिलने पर , दूसरों  के आगे , मेरा चरित्र हनन करने से बाज ना आता.... बड़ी अजीब बात थी , विगत में  मेरे जितने भी  दोस्त हुए थे , वे  सब पढ़ाकू किस्म के , शर्मीले और स्वाभाव से गंभीर थे ।  मैंने  कभी किसी आवारा या लफंगे टाइप लड़के से दोस्ती की ही नहीं , पता नहीं क्यों , मुझे उन्हें देख एक  घिन्न सी आती ..... उनकी सेक्स के बारे अधकचरी  बाते , लडकियों को खुले आम छेड़ना और पढाई के नाम पर  मास्टरों की गाली खाना या सजा पाना उनकी फितरत थी ....जो मेरे स्वाभाव से मेल नहीं खाती .... 


ऐसे ही कॉलेज में , मेरा एक  दोस्त सुनील था , सुनील का व्यक्तिव मुझसे अलग था , मैं एक  वाचाल और फुर्तीला किस्म का इन्सान ,तो, इसके विपरीत वह  एक  गंभीर और सुस्त किस्म का प्राणी था ... कॉलेज में जब लड़के, लडकियों के इंतजार में पलके बिछाये कैंटीन या लाइब्रेरी में बैठे रहते , तो वह  उन्हें देख बड़ा मजाक बनाता ... कभी कभी मेरे अन्दर के अरमान भी मचल जाते और मैं भी किसी एक  खास लड़की की दीवानगी में पड़ उसके साथ बातचीत का बहाना बनाने की जुगत में लग जाता ...


जब जब सुनील को पता लगता की मैं इस कोशिश  में हूँ तो, उसका एक  ही जवाब होता “अरे बॉस , काहे अपना समय बर्बाद करते हो , इन दो टक्के की लडकियों के लिए , इनकी कीमत १०० रूपये से ज्यादा की नहीं” , इससे ज्यादा महत्वपूर्ण तो हमारा इंजिनियर बनना है , काहे इनके चक्कर में पड़कर, अपना पढाई का समय बर्बाद करते हो .... मैं उससे पूछता , “क्या तेरा मन नहीं होता , की तू उनके साथ गप्पे लड़ाए , मूवी जाए या किसी को अपनी गर्लफ्रेंड बनाये ?”.....


इस बात पर  वह  हंस देता और बोलता , जितना समय और पैसा इनका थोडा सा साथ पाने के लिए करूँगा , उससे कहीं  कम में तो ,मैं इनका पूरा का पूरा मजा ले सकता हूँ ... फिर काहे इनकी झूठी सच्ची बाते सुनने और ज्यादा से ज्यादा छूने छाने के लिए , मैं अपना दिमाग , पैसा और समय बर्बाद करूँ?.... 


उसकी बातों  में लॉजिक होता , क्योंकि जिन जिन लड़के और  लडकियों के चक्कर चल रहे होते , उनका अधिकतर समय एक  दूसरे  के इन्तजार में या फालतू के लफड़ों में पड़कर ही बर्बाद होता और इसके साथ कॉलेज के टीचर्स की भी उनपर  ख़ास इनायत  रहती की, उन्हें किस बहाने से फ़ैल किया जाए .... 


ऐसे हालत में , मैं भी मजबूरन ,लडकियों के पीछे भागने के ख़्यालात  को छोड़ देता , अब यह बात अलग थी, हमारे नसीब में ना तो सुनील की तरह की ऐश थी ना ही दुसरे मजनुओं  की तरह किसी के साथ वक़्त गुजारने की दीवानगी  ।  इस तरह के झूठे और  सच्चे आदर्श के चक्कर में पड़कर , मैंने  भी अपने अंदर एक  अजीब तरह की अकड़ पा ली , की किसी भी ऐसी वैसी लड़की को कभी घास नहीं डालनी है  ....


जिन जिन लडकियों ने मुझे कुछ कुछ इशारा दिया , उन्हें मैंने  हड़का दिया और जिन्हें मैंने   चाहा , वे हमें आँख उठा कर देखती भी नहीं थी ।  इस फालतू की अकड़  का यह परिणाम निकला , की हम, ना तो घर के रहे , ना घाट के और फ़ालतू में अपनी चढ़ती जवानी को नारी के सपने देख और बचपन में पाए अपने अधूरे ज्ञान के साए में , अपना मर्दों वाला काम चलाने पर  मजबूर थे ... मेरी बदहवासी या मायूसी देख एक  दिन सुनील ने मुझे नारी के असली दर्शन करवाने या यूँ कहे की मेरी थ्योरी को प्रक्टिकल में बदलवाने के लिए अपने गावं आने का न्योता दिया ....


कॉलेज का तीसरा साल ख़त्म  हो रहा था , गर्मियों की छुट्टी के लिए सब घर जा रहे थे  ।  मैंने  सुनील से वादा लिया की , जब मैं उसके गावं आऊंगा  तो वह  मेरी अतृप्त इच्छा की पूर्ति जरुर करवाएगा ... सुनील ने बड़ी ही शान से ताल ठोकी और बोला , “बॉस , तुम आने वाले तो बनो” , देखो मैं तुम्हारी कैसी ऐश करवाता हूँ और ऐसा कह उसने अपने खीसे निपूर दिए ....

हम सब दोस्त अपने अपने घर गर्मियों की छुट्टी बिताने चले गए , हमारा इंजीनियरिंग का तीसरा साल खत्म हो चूका था , घर पर  आकर , इधर उधर घूमना और सोना मेरा शगल था ....की ..एक  दिन मैंने  सोचा , अगर इस साल सुनील के गाँव  नहीं गया तो फिर कभी जाना नहीं होगा , अगले साल तो सब पास करके नौकरी में इधर उधर चले जायंगे , क्यों ना इसा बार प्रक्टिक्ले कर ही लिया जाए ....


प्रक्टिकल के ख्याल भर से ही शरीर में उत्तेजना होने लगी , दिल जोर जोर से धडकने लगा , की कैसा अनुभव होगा ? मैंने  तुरंत फुरंत सुनील को चिठ्ठी लिखी की मैं दो हफ्ते बाद उसके गावं आऊंगा  । वह   जबाब देकर मेरा आना पक्का करे ...उस ज़माने में ना तो फोन था और ना ही कुछ और जरिया की , आप किसी से मिलने का प्रोग्राम अचानक से बना ले ...


कुछ दिन बाद सुनील का जवाब आ गया और मैंने  उसके गाँव  जाने की तैयारी शुरू कर दी ....रास्ते भर , ना जाने कैसे कैसे सपने संजोता रहा , की जब किसी औरत को बिना वस्त्रों  के देखूंगा   तो वह  कैसी लगेगी ?...


उस ज़माने में कॉलेज में लड़के किराये पर  टी वी , वी सी आर लाते , जिसमे कुछ हिंदी , कुछ अंग्रेजी की और फिर आधी रात के बाद चोरी छिपे नीली फिल्मो का दौर चलता , पर वह  सब इतनी साफ ना होती की उनसे किसी तरह का कोई अंदाजा लगाया जाए ...इसके विपरीत आजकल जो सुविधा , एक  आम बच्चे को इन्टरनेट पर  उपलब्ध है ...ऐसी तो हमने अपने समय में सपनों  में भी ना सोची थी ... 


पत्रिकाओ के नाम पर  ,प्लेबॉय नाम की कोई पत्रिका होती है जिसमे औरतो के गर्म गर्म फोटो होते है ऐसा सुना भर था , पर देखना कभी नसीब नहीं हुआ ...ज्यादा  से ज्यादा उस ज़माने में किसी के पास डेबोनैर मिल जाती थी , जिसपर  कॉलेज में लड़के चील  कौओ की भांति टूट पड़ते थे , या कुछ लोग उसे अपनी मर्दानगी से गन्दा करके रखते थे ...की ..दूसरा उसे छूने से पहले कई बार सोचता ....मुझे आजतक यह बात कभी समझ नहीं आई , की लडको को किसी स्त्री की फोटो से अपने अंग को रगड़ ने से , कैसे भला किसी आनंद की प्राप्ति हो सकती है ? फिर भी जिन जिन लडको के पास कोई भी मजेदार पत्रिका होती , उसमे कुछ पन्ने जरुर चिपके होते .....


अगर गौर से देखे तो भारत में मेरे समय के लोग बहुत ही बदनसीब थे ...हमसे पहले वाली पीढ़ी(नाना , बाप , दादा ) को सेक्स का अनुभव कच्ची उम्र में शादी के माध्यम से होजाता और आज के युवा को इसकी खुली छुट की वजह से हो जाता है ...पर हम लोग , जिन्होंने ना तो कच्ची उम्र में शादी की और जिन्हें, ना ही आज के माहौल  के हिसाब से सुविधा और खुलापन मिला .....वे  सेक्स के लिए अपनी किस्मत के रहमो करम पर  थे ...की कहीं  किसी अंधे के हाथ बटेर लगी की नहीं ...


यूँ तो सुनील के घर पहुचने का प्रोग्राम मैंने  उसे लिख दिया था , पर जब मैं उसके घर पहुंचा तो , वह  मुझे देख हैरान हो गया और बोला , बॉस कैसे आना हुआ ? अब चौंकने  की बारी मेरी थी , मैं बोला , तुझसे  कॉलेज में बात तो हुई थी और मैंने  चिठ्ठी लिखकर तुझे बताया था , की मैं  आऊंगा  ....

उसने अपने खींचे निपोरे और बोला , हाँ एक  चिठ्ठी तो मिली थी जिसमे आने का जिक्र था , पर दिन और तारीख मैं भूल गया , फिर मुझे लगा , लगता है बॉस ऐसे ही गोली दे रहे है , भला इतनी दूर कौन आएगा ?... पर उसे क्या पता था , की मैं भी इरादों का बड़ा पक्का था ...


उसके घर पहुचने के बाद मैंने  अपने इरादे जाहिर कर दिए ...की भाई , थ्योरी बहुत पढ़ ली अब जरा प्रक्टिकल का लिया जाए ..पर मुझे क्या पता था , जो बाते पढने में जितनी रूहानी होती है , सुनने में जितनी मजेदार लगती है , जब हमारा असलियत से पाला पड़ता है , तब सिवाय निराशा के कुछ हाथ नहीं लगता ....जिस दिन मैं सुनील के घर पहुंचा , उस दिन शाम हो चुकी थी  ।  वह  बोला आज तो कुछ हो नहीं पायेगा , कल चलते है.. । मैंने  भी दिल को तसल्ली दी , जब इतना वक़्त इंतजर कर लिया तो एक  दिन और सही ..... 

.......क्रमश :

By 

Kapil Kumar 




  
Note: “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. Resemblance to any person, incident or place is purely coincidental.' ”

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