Thursday 12 November 2015

प्रेम साहित्य का असमायिक अंत !


काफी समय पहले की बात है राजा बोधिसत्व के दरबार में कई तरह के कलाकार , गायक , वादक  , नर्तक नर्तकियां और नट-नटनी आदि थे! जो समय समय पर राजा और राजदरबारियो का मनोरंजन करते..... इन सब मे राजकविकपिलराजऔर राज्य नर्तकीवसुंधराका विशेष स्थान था !
वसुंधरा अत्यंत ही रूपवती और इक भाव कुशल नर्तकी थी ..जिसकी इक झलक पाने के लिए राज्य का धनवान  से निर्धन तक और छोटे से लेकर बड़ा तक सब बैचेन रहते की, किसी तरह इस रूपसी के दर्शन हो जाये और बड़े सोभाग्य वालो को उसकी नृत्य कला देखना नसीब होता था...जन्हा सारा राज्य वसुंधरा का दीवाना था ,पर उसका कोमल ह्दय तो सिर्फ राज्यकवि के लिए ही धडकता था!....
कपिलराज की श्रृंगार रस में डूबी हुयी कवितायों राजा और दरबारियों का मन मोह लेती और उसकी कविताओ पे थिरक वसुंधरा अद्भुत नृत्य नाटिका पेश करती तो पूरा राजदरबार मदहोश हो उठता!

दोनों की जुगल बंदी देखने लायक होती थी.. देखने और सुनने वाले वाह! वाह! कर उठते ...जब कपिलराज अपनी धुन में तान छेड़ता....तो राज्य के वातावरण में इक मीठी मधुर लहरी की तरंग फैलती,जो मनुष्यों के साथ साथ पशु पक्षियों को भी अपनी तरफ आकर्षित कर लेती ....उस वक़्त पूरा राज्य प्रेम संगीत में डूब जाता ..ऐसे लगता जैसे इंद्र की सभा धरती पे सजी रही हो.....जिसमे गन्धर्व गा और बजा रहे है और अप्सराये न्रत्य पेश कर रही है....जब तक यह गायन वादन चलता पूरा राज्य अपने स्थान पर जड़ सा होजाता!
कपिलराज और वन्सुन्धरा राजा बोशिस्त्व के खजाने के दो अनमोल रत्न थे..जिनपे राजा की कृपा और कलाकारों और दरबारियों के अपेक्षा थोड़ी अधिक थी....
राज्य , राजा , राज दरबारी और प्रजा के लिए वोह दोनों अमूल्य थे!! कपिलराज राज्य में जन्हा भी कंही भी जाता इक विशेष आदर और सम्मान प्राप्त करता ...

पर इक ऐसी कसक थी जो दोनों युवाओ के मन में इक हुक सी पैदा करती थी.....मन ही मन कपिलराज और वसुंधरा इक दुसरे से असाध्य प्रेम करते थे......पर यह प्रेम सिर्फ उनकी आत्मा और मन तक ही सिमित था......राज्य के नियम और कानून के अंतर्गत कोई भी राज्य कर्मचारी आपस में किसी तरह का सम्बन्ध नहीं रख सकता था..... राज्य नर्तकी के लिए किसी और से प्रेम करना तो वैसे भी वर्जित था....वोह राज्य की सम्पति थी और उसपे सिर्फ राजा का अधिकार था .....

फिर भी इक अनजाने बंधन से बंधे दोनी इक दुसरे के ह्दय में झांक अपने मन के भावो का आदान प्रदान कर लेते.... कपिलराज की श्रृंगार रस की रचनाओ में प्रेमिका की झलक सिर्फ वसुंधरा के रूप में होती..... वसुंधरा को अपनी काल्पनिक प्रेमिका समझ कपिलराज उसे अपनी कविताओ और रचना में अभिवयक्ति करता.. ...कपिलराज अपनी कविताओ के माध्यम से अपने हदय के भाव वसुब्धरा को सुना देता .... और बदले में वसुंधरा भी मन ही मन कपिलराज की कल्पनाओ में डूब, उसे अपने सपनो का राजकुमार समझ न्रत्य नाटिका को पुरे मनो भाव से करती... वसुंधरा उनपे अपना भाव पूर्ण न्रत्य नाटिका का प्रदर्शन कर अपनी स्वीकृति प्रदान कर देती .....

इस तरह दोनों अपने हदय ही ह्दय में बिना किसी से इस जग में बोले इक दुसरे के ह्दय के भावो को देख और सुन लेते !! समय अपनी धुरी पे घूम रहा था......की इक दिन ...

राजदरबार में कपिलराज अपनी किसी नयी कविता को सुनाने जा ही रहा था की .....इक ब्राहमण का आगमन हुआ!!! ......

ब्राहमण शरीर से बड़ा हस्ट पुस्ट और देखने में बड़ा तेजस्वी लगता था...... उसके बड़े से माथे पर चंदन की तीन धारियां खिंची थी ,जो उसकी अभिव्यक्ति के वक़्त उसके ज्ञान को प्रदर्शित करती प्रतीत होती.....हाथो में रुद्राक्ष के कड़े ,बांहों के ऊपर  रुद्राक्ष और लाल धागे के बंधन से बने बाजू बंध और गल्ले में लटकती इक बड़ी मोतियों और रुद्राक्ष से बनी माला, उसके रूप और ज्ञान के ओजस्वी होने की मुनादी करती प्रतीत होती थी!!.....

ब्राहमण ने अपने दोनों हाथ जोड़ और शीश झुका कर राजा को अभिनन्दन किया और अपना परिचय देते हुए बोला .....राजन मेरा नामगीतदेव चन्द्रहै ..मैं तक्षिला से आया हूँ मेने आपके राज्य के बारे में काफी सुना है ,की आप ज्ञान और योग्यता के सही पारखी हैं और उसका उचित मूल्याकन भी करते हैं ....मेरी पहचान तक्षिला में आचर्यगीतदेवके नाम से है ... मैं आपके राज्य के सबसे योग्य व्यक्ति से शास्त्रथ करना चाहता हूँ ..जिससे आप मेरी योग्यता की  सही परख करके, मुझे अपने राजदरबार में कोई सम्मानीय पद प्रदान करे!!! .....

ब्राहमण की बात सुन दरबार में सन्नाटा सा छा गया.....आज तक इस राज्य में कभी ज्ञान और विज्ञानं की योग्यता को लेकर किसी पे प्रशन चिन्ह ना लगा था??.....सब इक दुसरे की योग्यता की प्रशंशा मुक्त कंठ से करते थे ..उसमे बड़ा या छोटा जैसा कोई भेद भाव ना था और ना ही कभी किसी ने यह जतलाने का प्यास किया की वोह दुसरे से श्रेष्ठ है!!....

ऐसे में ब्राहमण की चुनोती को स्वीकार करना इक कठिन कार्य था ..पर राज्य की मर्यादा और शान रखने के लिए ..किसी को तो यह चुनोती स्वीकार करनी ही थी!
सभी  राजदरबारियो ने इक मत से यह स्वीकार किया इस चुनोती को सिर्फ राजकवि कपिलराज ही स्वीकार करने के योग्य है! कपिलराज ही ब्राहमण से शास्त्राथ करने में सक्षम है!! ....राज्य हित के लिए,कपिलराज ने ब्राहमण की चुनोती को सहश स्वीकार कर लिया!.....
राजकवि ने आज से पहले तक सिर्फ अपने ह्दय और मन की आँखों से दुनिया देखि थी पर आज उसका सामना वास्तविकता के कड़े और कठोर धरातल से होने जा रहा था ,जिसका अंदाजा ना तो राजकवि को था और ही राजा और प्रजा को ????
शास्तार्थ प्रारंभ हुआ.......... राजकवि ने अपनी मन के भावो को वयक्त करती श्रृंगार रस में डूबी, इक कविता, जिसमे चाँद के सामन सुन्दर प्रेयसी के विरह की प्रेम कथा ,कपिलराज ने राधा और कृषण के माध्यम से सुनाई!!....की ,कैसे राधा, कृषण के प्रेम में वसीभूत होकर उनके आने की बाट जोह रही है...कृषण के इंतजार में राधा अपना दुःख , दर्द और विरह की वेदना अपने पास बैठ पशुपक्षियों को सुना रही है और राधा का दर्द और वेदना सुन,कैसे सब पशु-पक्षी, अपने-अपने अशु बहा रहे है!! कविता ख़त्म होने पर, राजा और दरबारियों ने कपिराज की प्रशंशा के शोर से राज्य को चारो दिशाओ में गूंजा सा दिया!!! ....
ब्राहमण गीतदेव ने शांत भाव से कविता का आनंद लिया!!
कविता पाठ ख़त्म होने पर सारे राजदरबार की निघाहे गीतदेव की और मूड गयी की.... अब ब्राहमण इस चुनौती के बदले क्या प्रदर्शित करेगा ?
गीतदेव अपने आसन से उठ इक शेर की भांति चलता हुआ दरबार के बीचो बिच में आया....पहले उसने अपने गले की माला को छुआ फिर राजा के आगे अपना शीश झुकाया और अपने दुपट्टे को कंधे पे डालते हुए.....इक ललकार भरी आवाज में कपिलराज की तरफ मुखातिब होकर बोला ... उतम! ..अति उत्तम!! ...
पर छमा करे महाराज!!!.. ..इस कविता का कोई अर्थ नहीं है? ......सारा दरबार और राजा, ब्राहमण की बात सुन सकते में आगये ...ब्राहमण गीतदेव आगे बोला.....
इस कविता के माध्यम से कहा गया प्रेम इक दिखावटी,बनावटी और रूमानी है इस तरह के प्रेम का इस जगत में ना कोई मूल्य है ना ही इसकी कोई पहचान?...
क्या कविवर मुझे और इस दरबार को बता सकेंगे की.... उन्होंने कभी किसी से इतना प्रेम किया है? जिसका वर्णनन इनकी रचना में है अगर किया है तो वोह कौन सी रूपवती है?..जो इक राजकवि को इतना कमजोर और मजबूर बना सकती है ?
क्या वोह बता सकेंगे की..... प्रेम के विरह में डूबी राधा का अस्तित्व इस जगत में कभी था या नहीं ?यह राधा कौन थी? उसके कृषण के प्रति इतने गहरे प्रेम का क्या रहस्य था और उसके प्रेम के बारे में कविवर कैसे जानते है ?
क्या वोह यह बता सकते है की.... सिर्फ राधा ही कृषण के प्रेम में दिवानी होकर उनकी बाट क्यों देख रही थी ?क्या कारण था की कृषण को कोई तड़प या वियोग की आग ना थी ?
क्या किसी रूपवती स्त्री की सुन्दरत किसी चाँद की अपमा से दी जा सकती है?....जब की हम सब जानते है की चाँद स्थिर नहीं है उसका आकार दिन प्रतिदिन बदलता है फिर किसी रूपसी का चेहरा चाँद के समान कैसे सुन्दर हो सकता है ?
कैसे कोई रूपवती?? अपने प्रेमी के इंतजार में पशु पक्षियों से बाते कर उन्हें अपनी पीड़ा बता सकती है ....क्या ऐसा वास्तव में होता है अगर हाँ तो क्या कविवर ऐसा करके दिखा सकते है ?

यह सब मनगढ़त , बेबुनियाद और झूट से भरी रचनाये हैजिनका हमारे दैनिक जीवन में कोई मूल्य नहीं!!!
ब्राहमण गीतदेव के प्रश्नों को सुन दरबार में सन्नाटा छा गया ......
कपिलराज ने अपनी  रचनाओ में, अपनी कल्पना में वसुंधरा को अपनी प्रेयसी रखा था जिसके प्रेम का  इस मिथ्या जगत से कोई नाता ना था ..वोह कैसे अपने प्रेम का इजहार भरे दरबार में करके अपनी प्रेयसी की मान मर्यादा को खंडित कर देता ..उसका प्रेम तो त्याग और विरह की अग्नि में तप तप कर निखरा था ,उसमे सिर्फ समर्पण और त्याग की अभिवयक्ति थी ....किसी तरह की अभिलाषा की उसमे लेश मात्र भी गुंजाईश ना थी ....कपिलराज का बावरा मन रचना करते वक़्त जीवन की उलझनों और वास्तविकताओ के ताने बने से कोसो दूर रहता था...वोह अपनी कल्पनाओ में अपनी प्रेयसी के संग प्रेम विहार में डूब अपनी रचनाओ को जन्म देता ....

उसका प्रयास हमेशा लोगो के चेहरे पे इक मुस्कान लाना होता की लोग आम जीवन की कठिनायो के बावजूद भी इक पल अपने चेहरे पे मुस्कान ला सके .... किसी को कभी यह आभास भी होता....श्रृंगार रस में डूबी रचनाओ का रचियता अपने जीवन में कितना रस विहीन है.....जो अपने प्रेम का इजहार अपनी प्रेयसी तक से नहीं कर सकता.....वोह कैसे अपनी कल्पनाओ के सहारे सिर्फ अपनी रचनाओ में प्रेमी और प्रेमिका के माध्यम से अपने निर्मल प्रेम को जीवित करके आनंद की अनुभूति ले लेता है .....

कपिलराज के पास ब्राहमण के चुभते , नुकीले  प्रश्नों का कोई अर्थपूर्ण उत्तर ना था ....उसने उन प्रश्नों के उत्तर में अपना मुख को बंद कर लिया.....कविराज की तरफ से कोई प्रतिकीरिया होता देख, ब्राहमण गीतदेव पुरे जोश और उन्माद में इक खूंखार आदमखोर की तरह भरे दरबार में टहलने लगा......

ब्राहमण गीतदेव, राजा की और मुखातिब होते हुए बोला ...राजन इन कविताओ का जीवन की कठनाईयो और सचाइयो से दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है.....इस तरह की  कविताये और रचना ,राज्य के लोगो को अकर्मण , लाचार , लोभी , कामी और निरंकुश बनाती है.....आपके राज्य में लोग जीवन की दुश्वारियो से लड़ने के बजाय, इन रास रंग में डूब इसे राज्य को सिर्फ नरक की और ले जा रहे है
....ब्राहमण की बात सुन दरबारियों के रक्त में उर्जा और विश्वास का नया संचार हुआ ..जो रक्त प्रेम और श्रृंगार रस में भीग कर इतने वर्षो से शांत सा पड़ा था ...
अचानक ब्राहमण गीतदेव के ओजस्वी भाषण से खोल उठा.....


शायद मनुष्य की कमजोरी है, जब उसका जीवन आनन्दमय होता है वोह अपने आनंद को त्याग कर ,अपने को दुखी करने के लिए, नए नए तरीको को जाने अनजाने में खोज ही लेता है .....
पुरे दरबार में ब्राहमण गीतदेव की जय जयकार के नारे गूंजने लगे......जिस कविराज की इक इक पंक्ति पे ,राजदरबार के लोग उन्हें तालियों और प्रशंसा के रस से भाव विभोर कर देते थे!! आज उस कविराज की तरफ कोई द्रष्टि उठाकर देखने में अपनी मर्यादा का हनन समझ रहे थे.....

उन्हें लगता था उनके जीवन का इतना  बहुमूल्य समय इन बेकार की कवितो और रचना में व्यर्थ हो गया .....
राज्य के कुछ दरबारियों ने आनन् फानन में राजा के समक्ष राजकवि कपिलराज को राजदरबार से निकालने की पेशकश भी कर दी!! कुछ दरबारी जो मन ही मन राजकवि और राजनर्तकी वसुंधरा के प्रेम को समझते थे उन्होंने इस मौके का पूरा उपयोग कर लिया और राजा बोधिसत्व के समक्ष उन्होंने ब्राहमणगीतदेवके लिए राजकवि वाले आसन और उन्हें पद की मांग रख दी ....

राजा बोधिसत्व सब कुछ जानते और बुझते हुए भी खामोश थे.....जब जन समर्थन राज्यकवि कपिलराज के विरुध और ब्राहमण गीतदेव के पक्ष में था....तो उन्हें भी राज्य की मर्यादा का पालना करते हुए ..कपिलराज को आसन छोड़ने को कहने के लिए बाध्य होना पड़ा .....
कपिलराज ,बुझे मन, भीगी आँखों और थके कदमो से राजदरबार से बहार निकल आया ..आज वास्तविकता की क्रूरता ने कल्पना की शीलता ,सोम्यता और निर्दोषता का भरपूर बलात्कार किया था ....
लगता था कपिलराज की हुयी जग हंसाई ,चाँद भी देखने की हिम्मत दिखा  सका और बादलो के पीछे जाकर छिप गया!!! .....
पुनर्जन्म!


संवत 1537, मास कार्तिक, दिनांक 25…..शाम ढलने लगी थी ...अगले दिन दीपावली का त्यौहार था और  केतकी  अपनी नयी पोशाक को देख कर मन ही मन हर्षित हो रही थी ...
भगवान् ने उसके साथ रूप रंग और गुणों में पूरा न्याय किया था ...उसके जैसी सुंदरी आस पास 100 कोसो तक नहीं थी! उसके ज्ञान को देख बड़े बड़े पंडित अचंभित हो जाते थेवेद, पुराण , उप्निशेद , रामायण , गीता उसे सब कंठरस्थ थी ... उसके हाथ की जड़ी बूटिया का इलाज पुरे गावं में मशहूर था …. वैसे तो केतकी के पिता गावं के वैध थे और थोडा बहुत ज्योतिष ज्ञान भी रखते थे ….फिर भी …अगर कोई गावं वैध से ठीक ना होता तो केतकी के घर के बहार उसके इंतजार में खड़ा मिलता ....केतकी ना जाने उस ज़माने में कौन सी ज्ञान विज्ञानं की आधुनिक बाते करती थी जो लोगो के समझ में ना आती पर उसके विद्ता का लोहा हर कोई मानता था ....इतनी सारी खूबियों होने के बावजूद ना जाने उसका मन कपिल ,जैसे इक साधारण लड़के पे मचलता था......

यूँ तो भगवन ने केतकी पे ज्ञान और रूप की पूरी दया की थी पर इक कमी थी जो केतकी का मन कभी कभी हल्का कर देती ... केतकी की माँ उसके जन्म के कुछ साल बाद चल बसी थी! केतकी हमेशा कपिल की माँ में अपनी माँ देखती और सोचती इक दिन मै इस घर की बहु बनकर आउंगी तब उनकी पूरी सेवा करुँगी और अपनी ममता की कमी पूरी कर लुंगी ...कपिल इक साधारण सा युवक था....जो अपनी माँ का इक मात्र सहारा था....बचपन में ही उसके पिता उन दोनों को जंगल में कंही अकेला छोड़ कर चले गए थे ....कपिल गावं में इक छोटी सी दुकान चलाता था…. और मन ही मन केतकी को जी जान से चाहता था....पर उसके रूप और ज्ञान के आगे अपने को छोटा समझ कभी उसके आगे अपने प्रेम को स्वीकार ना कर पाता था.... 

यूँ तो केतकी सर्वगुण संपन थी पर उसकी नटखट पन और शरारत करने की आदते पुरे गावं में मशहूर थी.... जिन जिन लोगो से उसे चिढ हो जाती....कभी उनकी भैंस खोल खेत में छोड़ देती…. तो कभी किसी के गाय के बछड़े को गाय के आगे दूध पिने के लिए छोड़ देतीतो कभी किसी की मुर्गी के दबड़े को खोल मुर्गी भगा देती ....उसकी इन शरारत और उद्दंडता से गावं वाले परशान रहते पर कुछ ना कहते!
 क्यूंकि जब भी किसी को मदद की जरुरत होती तो केतकी सबसे पहले वंहा होतीकिसी को तालाब से पानी मांगना हो या अपने चौका बर्तन में मदद हो या फिर कुछ और? सारे गावं में मशहूर था की केतकी कपिल को चाहती है ...कपिल और  केतकी का रिश्ता बिना किसी औपचारिकता के कपिल की माँ और केतकी के पिता को मंजूर सा थापर उसपे कोई सामाजिक स्वीकृति अभी तक नहीं लगी थी

केतकी, कपिल को जब भी देखती ..कपिल के सामने इक दम अलग रूप में हो जाती उसका नटखटपन और शरारते ना जाने कंहा काफूर हो जाती ….. वोह हमेशा सोचती कभी वोह दिन भी आयेगा?  जब कपिल उससे अपने प्रेम का इजहार करेगातब वोह उसकी खूब खबर लेगी! ......आज केतकी अपनी नयी घाघरा चोली में संज सवंर के दर्पण के सामने खड़ी थी ...उसकी सुन्दरता देख दर्पण भी शरमा रहा था... हलके अंधरे में उसका गोर वर्ण चांदनी की भांति दमकता था.... आज उसके रूप का योवन अपने पुरे उफ़ान पे था.... उसना सोचा जाकर कपिल की माँ से मिल आंऊ और इस बहाने अपनी नयी घाघरा चोली के दर्शन कपिल को करा कर उसको थोडा सा झटका दे दू. .. देखू कितने दिन यह मुर्खदास मेर रूप की आग से अपने को बचाता है?.....

अभी अभी केतकी घर से बहार निकली ही थी की सामने से कपिल आता दिखाई दे गया! केतकी… कपिल को आता देख रास्ते में पड़ने वाले इक जामुन के पेड़ पे चढ़ गयी और जैसे ही कपिल पेड़ के निचे से गुजरा उसके ऊपर उसने इक जामुन देकर मारा.... कपिल इधर उधर देख रहा था की उसे किसने क्या और कान्हा से मारा.... केतकी मन ही मन हंसी और फिर 2/3 जामुन इक साथ मारे.... अब कपिल को माजरा समझ आगया था की कोई पेड़ से उसे मार रहा है पर शाम का वक़्त होने की वजह से उसे साफ़ साफ़ दिखलाई नहीं दे रहा था ...

अचानक कपिल को यूँ इधर उधर देख केतकी शरारत में पेड़ से कूद उसके सामने आकर खड़ी हो गयी और उसे जीभ निकाल कर चिढाने लगी ….. अचानक केतकी को सामने इस रूप में देख कपिल हक्का बक्का रह गया....केतकी की शरारत ने उसके अन्दर का छिपा केतकी के प्रति प्रेम जाग्रत कर दिया और कपिल ने हिम्मत कर केतकी का हाथ पकड लिया और बोला..  तो.... यह भूतनी थी, जो पेड़ पे चढ़ कर मुझे जामुन से मार रही थी और मै डर के मारे मरा जा रहा था.... मुझे लग रहा था इस पेड़ पे कोई नया भूत गया है ...कपिल का हाथ पकड़ने से केतकी शारीर में इक बिजली सी दौड़ गयी.. उसकी सांसे तेज तेज चलने लगी और उसका वक्ष स्थल अपनी सांसो के साथ ऊपर निचे होने लगा ....केतकी शर्म से सिंदूरी हो अपनी नजरे निचे कर कपिल के सामने खड़ी हो गयी और उससे अपना हाथ छुड़ा कर बोली....बुद्धू कंही के और अपने घर की तरफ भाग गयी ....आज से पहले तक कपिल, केतकी के सामने हिचकता था पर उसकी इस अदा ने उसे साहस और होसला दे दिया और वोह भी केतकी के पीछे पीछे भाग लिया.....

केतकी अपने घर में घुस दिवार की ओट से गली के बहार देखने लगी ... उसकी साँस बहुत तेज तेज चल रही थी ख़ुशी और उत्तेजना में उसका बदन कांप रहा था.... आज से पहले कपिल ने उसे नजर उठाकर देखने में भी कंजूसी की थी और आज तो कपिल ने उसका हाथ पकड़ लिया था.... अचानक कपिल पीछे के रास्ते आकर गली के बहार झांकती केतकी के पीछे खड़ा हो गया … अचानक किसी की सांसो की आवाज सुन केतकी चोंक उठी.... जैसे ही उसने पीछे मुड़ के देखा तो कपिल खड़ा था ...उसे इतना करीब देख वोह जड़ सी हो गयी….

कपिल ने उसके दोनों हाथो को अपने हाथो में लेकर कहा…..

केतकी.. तुम्हारे जैसी रूपवती, मृदभाशी, संस्कारी और ज्ञान की देवी मुझ जैसे इन्सान को चाहे ,यह इक सपना जैसा है ... मैं तुम्हारे योग्य तो नहीं…. पर जीवन में तुम्हे कोई भी कष्ट तुम्हारे नजदीक ना आने दूंगा तुम्हे इतना प्रेम दूंगा की मेरा प्रेम तुम्हे दुनिया में किसी के भी प्रेम से कम ना लगेगा....
उसकी यह बात सुन केतकी के मन में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी और उसने अपना हाथ कपिल के मुंह पर रख दिया और बोली.... बस अब और कहना.... वरना मैं मर जाउंगी! ...अमावस्या की रात में भी..सिर्फ इक दिये की रौशनी में  .. केतकी का गोर वर्ण उसपे सज्जित गहनों से किसी अप्सरा की भांति चमक रहा था.. ..

अचानक, कपिल को ना जाने  क्या सुझा? उसने केतकी को अपनी बांहों में भर उसे चूमना शुरू कर दिया ...केतकी ने अपनी तरफ से उसे समझाने की कोशिस की.... जब तक दोनों का विवाह नहीं हो जाता तब तक यह अनुचित है! ...
पर कपिल के सर पे चढ़ा वासना का भूत या केतकी के सोंद्रय का जादू या अपनी अभी अभी दूर हुयी हिन् भावना की विजय ने उसे इतना मजबूर कर दिया की, उसे अपने ऊपर नियंत्रण ना रहा... उसकी पकड़ केतकी पे कसती चली गयी ... थोड़े से विरोध के बाद केतकी ने भी आत्म समर्पण कर दिया.... और दोनों ने वोह गुनाह कर डाला! जो उस सामाज में सबसे आवांछित कार्य था ...

तूफ़ान के गुजर जाने के बाद दोनों शर्मिंदा महसूस कर रहे थे और कपिल, केतकी को दिलासा दे रहा था की वोह जल्दी से जल्दी उससे विवाह कर लेगा.... उसकी नादानी की वजह से यह सब हुआ है ...अचानक किसी के कदमो की आवाज सुन दोनों चोंक उठे.... देखा कमरे के बहार केतकी के पिता जड़ बने खड़े हो कर उनकी बाते सुन रहे थे!...
केतकी, पिता को सामने देख शर्म से गड गयी और उनके पेरो में जा गिरी ... कपिल ने केतकी के पिता के चरण पकड़ कर कहा....
यह अपराध उसके कारण हुआ है .. इसमें केतकी का कोई दोष नहीं ...जो भी सजा देनी है वोह उसे दे! ...केतकी पूरी तरह निर्दोष है!.....

केतकी के पिता के आंसू झर झर बह रहे थे ....वोह बोले.... हमने जब तुम दोनों का विवाह लगभग निश्चित कर दिया था.... फिर भी तुम दोनों से अपनी भावनाओ पे नियंत्रण नहीं रखा गया.... केतकी....तुमने आज मेरी दी हई आजादी, शिक्षा और संस्कार का मजाक बना कर रख दिया.....

तुम दोनों का गुनहा माफ़ी के काबिल नहीं... तुम दोनों सात जन्मो तक इस प्रेम ले लिए तड़पोगे.... यह मेरा श्राप है! ....
कपिल…. तुम्हे किसी भी जीवन में कभी भी किसी स्त्री का प्रेम नसीब नहीं होगा… तुम, जिसे भी प्रेम करोगे, वोह तुम्हारी जिन्दगी का हिस्सा नहीं बन पायेगी!... कभी तुम्हारे हालत, कभी तुम्हारे जज्बात तुम्हे उससे दूर ले जायेंगे ... अगर तुम किसी का प्रेम पा भी लोगे ,तो ,उसे कभी भी शांत मन से महसूस नहीं कर पाओगे ...यही तुम्हारी सजा है!.....

केतकी ...तुम्हे हर जीवन में इतना ज्यादा प्यार मिलेगा जो तुम्हे ख़ुशी के बजाय तुम्हारा दम घोट देगा ... तुमसे प्यार करने वाला हमेशा तुमसे कुर्बानी मांगेगा और वोह कुर्बानी हर जन्म में बेकार जाएगी! तुम अपना प्यार बाँटने के लिए तड़पोगी, रोयोगी, गिद्गिदोगी पर कोई भी नहीं पसीजेगा....

 तुमने आज कपिल के आगे अपने कमजोर चरित्र का परिचय देकर यह सिद्ध किया है की मेरी परवरिश में कंही कमी रह गयी थी!... मैं उसका प्याश्चित करूँगा!
पर तुम्हे हर जन्म इक मजबूत चरित्रवान स्त्री के रूप में जन्म लेना होगा और अपने चरित्र की वजह से हमेशा दुखो में डूबे रहना होगा.....

कपिल और केतकी जो अपनी नादानी में इक बड़ी भूल कर बैठे थे अब सिवाय रोने के क्या कर सकते थे ... दोंनो केतकी के पिता के पैरो में पड़ गए और बोले हमसे वोह अपराध हो चूका है जिसकी कोई माफ़ी नहीं और इसको छमा भी नहीं किया जा सकता.....क्या हमारी गलती सुधारने का कोई भी विकल्प नहीं?....केतकी के पिता ने कुछ ना कहा और अपने आंसुओ से अपने वस्त्र भिगोते रहे! .......
रात आधी हो चुकी थी ...

कपिल, जब घर ना आया तो उसकी मां उसे धुंडते हुए केतकी के घर  पहुंची.... वंहा के हालत देख' उसका दिल बैठ गया …. जब उसे सारी बात का पता चला तो वोह अपना क्रोध रोक ना पाई और कपिल को श्राप देते हुये बोली...

जिस माँ की ममता की इज्जत... तूने अपने जवानी के जोश में नहीं की.... वही ममता.... तुझे किसी भी जीवन में अब नसीब नहीं होगी!.....अपनी माँ के पास रह कर भी तू उससे दूर रहेगा और जब दूर होगा तो तेरी माँ अपनी ममता उडेलेगी जो तेरे किसी काम की ना होगी ......
केतकी के पिता ने जब यह सुना तो उनका क्रोध विषाद में बदल गया.. वोह दूर से चिल्लाये....यह आपने क्या कर दिया?
मेने पहले ही इन्हें इनके कार्य के लिए श्राप दे दिया था और अब आपने कपिल को और दंड देकर उसके आने वाले सात जन्मो में हमेशा हमेशा के लिए जहर डाल दिया ...

तीर कमान से निकल चूका था.... कपिल की माँ को लगा शायद उसने ज्यादा बड़ा दंड दे दिया! उसने अपने आंसुओ से अपना दामन भिगो डाला और कपिल को अपने गोद में लेकर बोली ...शायद किसी दिन तेरी प्रेमिका... तुझे किसी जन्म में मिल जाये... जो तुझे माँ, प्रेमिका और इक सखा का साथ दे.दे...यही मैं भगवान से दुआ कर सकती हूँ!....
केतकी के पिता ने आकर जमीन पर लेटी केतकी को उठाया और बोले केतकी ....तुमने हमारी परवरिश और संस्कार का अपमान किया है....इसलिए तुम्हे यह घर छोड़ कर जाना होगा....तुम कपिल से कल विवाह करोगी और उसके बाद कभी अपना चेहरा हमें नहीं दिखाओगी! ...और ऐसा कह वोह अन्दर चले गए.....
कपिल और केतकी अपने कृत्य से इतने विचलित, दुखी और निराश थे ....की जीवन उनके लिए अब महत्वपूर्ण ना था... दोनों ने इक दुसरे को देखा और आँखों ही आँखों में इक गहरा निश्चय लिया ...

कपिल ने केतकी का हाथ पकड़ा और दोनों गावं के बाहर निकल गए ... कपिल की माँ और केतकी के पिता ने जब दोनों को घर से बहार जाते देखा तो उनका माथा ठनकादोनों पीछे से सिर्फ उन्हें पुकारते, पुचकारते, माफ़ी देते रह गए ...पर दोनों दीवानों को अब कुछ सुनाई और दिखाई नहीं दे रहा था.....
दोनों गावं के इक निर्जन कुये के पास पहुँच गए ... कपिल ने केतकी का हाथ पकड़ा और कुए में छलांग लगाने के लिए तैयार हो गया ... जैसे ही दोनों इक साथ कुए में कूदने वाले थे की केतकी के सामने उसके पिता का मासूम चेहरा गया और उसने कपिल का हाथ झटक दिया और कुये से पीछे हट गयी…. पर...तब तक कपिल अपना मन बना चूका था और कुए में कूद गया.....

जब केतकी को होश आया तो उसकी दुनिया लूट चुकी थी, उसे इस समाज, संसकारो और परम्पराओ ने अन्दर तक झिंझोड़ दिया था ... उसने चुप चाप अपने थोड़े कपडे लिए और वोह गावं हमेशा हमेशा के लिए छोड़ दिया और किसी आश्रम में जाकर सन्यासन बन गयी........
नॉएडा दादरी से 25/30 कोस दूर दनकौर के पास गावं "वेदपुरा" में आज भी इक निर्जन वीरान स्थान पर वोह कुआँ अपने अस्तित्व की आखरी लडाई लड़ रहा है.... जिसके पास इक बड़ा सा पीपल का पेड़ आज से करीब 200 साल पहले उग आया है....
आज भी वोह कुआँ कपिल और केतकी के वापस आने की बाट जोह रहा है! शायद किसी दिन वोह मासूम आत्माए वंहा जाकर अपने श्राप से ........मुक्ति .......ले सके!.............

By

Kapil Kumar 

Note :-यांह पर पगट विचार निजी  है इसमें किसी कि भावना को आहात करने का इरादा नहीं है….. “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. Resemblance to any person, incident or place is purely coincidental.' 


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