Monday 9 November 2015

इस दर्द की शायद , अब कोई दवा नहीं ?



इस दर्द की शायद , अब कोई दवा नहीं ?


गुजर गया इश्क का, कारवां कबका , उसका भी कोई निशां नहीं 
सजाता हूँ रोज , चिता अरमानो की , पर गम है की जलता ही नहीं
मेरे इस दर्द की शायद अब , कोई दवा नहीं..... 



गमो के बादलो  से ,  उम्मीद करता हूँ खुशियो का बरसना 
जीवन के वीरान रेगिस्तान में , ढूंडता हूँ मोहब्बत का झरना
खुली आँखों से देखता हूँ , मैं भी रोज इक नया सपना 
पूछता हूँ राह उनसे , जिन्हें खुद अपना पता नहीं
मेरी इन उम्मीदों की भी , कोई इंतहा नहीं
मेरे  इस दर्द की शायद अब ,  कोई  दवा नहीं....

 

सूखे टूटे  पत्तो पर लिखता रहा, प्रेम  के नए नए तराने
उन्हें भी उड़ा ले गईवक्त की  आंधी  , आधे अधूरे  रह गए अफ़साने
उन भटके  पत्तो को , समेटने की , मेरे पास कला नहीं
मेरे  इस दर्द की शायद अब ,  कोई दवा नहीं.....


बनाने  चला था उनसे रिश्ते , जिन्हे जीने की चाह ही नहीं
रखा था दिल जिसके कदमो में , उसे खुद की  परवाह ही नहीं
बन गए ऐसे अनजाने , जैसे मुझसे बड़ा कोई बेगाना ही नहीं 
पत्थरो के इंसानो में , अब शीशे का दिल मिलता ही नहीं
मेरे इस दर्द की शायद   अब , कोई दवा नहीं....





 By
Kpail Kumar

Note: “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. Resemblance to any person, incident or place is purely coincidental”. Please do not copy any contents of the blog without author's permission. The Author will not be responsible for your deeds..



No comments:

Post a Comment