Sunday 15 November 2015

हिंदी फिल्मो में हाशिये पे मुस्लिम समाज ? ...



“आपके पावं देखे बहुत खुबसूरत है , इन्हें जमींन पे मत रखियेगा , मैले हो जायंगे” .... ६० / ७० के दशक के हिंदी फिल्मो को देखने वाला कोई बिरला ही होगा जिसने पाकीजा , मुगले आज़म , बरसात की इक रात जैसी फिल्म ना देखी हो....

क्या समानता है इन सब खुबसूरत फिल्मो में ....रंगीन कैनवास , खुबसूरत और दिल को लुभाने वाले सीन , मदहोश कर देने वाले गीत और इन सबके साथ इक तहजीब और नजाकत से भरे समाज का समावेश ....

अगर आप लखनऊ गए है तो ..आप वंहा की जुबान और तहजीब के कायल हुए बिना नहीं रह सकते ..वही आदो अदब और तहजीब की झलक कल तक हमें हिंदी फिल्मो में स्तर के दशक तक मिलती थी ...इक ऐसी सभ्यता जिसमे औरत को इज्जत और मोहब्बत को पाक समझा जाता .....

जिसमे किसी के पावं या हाथ के नाखून भर देख लेने से उसकी खूबसूरती में कसीदे पढ़े जाते थे .....चिलमन की इक झलक मात्र से ...देखने वाले को चोधवी के चाँद के दर्शन हो जाते थे...

जो बात आजकल के फ़िल्मकार लम्बी लम्बी चुम्बन और बड़े बड़े डायलॉग से नहीं कह पाते ..वही बात ..बड़े ही खुबसूरत और सलीके से “मेरे महबूब “ में सिर्फ इक मुस्कुराहट और नजाकत से कह दी जाती है .....

जो बात बड़े बड़े हग और कपडे उधड़ने से भी नहीं होती ..वही बात मुगले आजम में सिर्फ इक पंख भर से कह दी जाती है ....

कितनी अजीब बात है या इतिफाक है की ...हिंदी फिल्मो में मुस्लिम किरदारों को पहचान , तहजीब से रूबरू कराने वाले कई सारे कलाकार हिन्दू थे ..जैसे पृथ्वी राज कपूर के बिना अकबर या भारत भूषन और सहगल के बिना दीवाने शायर का किरादर अधुरा सा लगता है ...ऐसे ही इक असफल प्रेमी के किरदार में राजेंदर कुमार या अशोक कुमार के अलावा किस की कल्पना की जा सकती है .....

बड़े अचरज की बात है ..इन सब किरदारों में हमें उस किरदार की नेक नियत , शराफत , तहजीब और उसकी पाक मोहब्बत याद रहती है ...उसमे कंही भी बचकाना या बाजारुपन नहीं लगता .....और फिल्म देखते वक़्त हमें फर्क नहीं पड़ता की अभिनय करने वाला हिन्दू है या मुसलमान ....गायिका लता है या शमशाद बेगम या सुरैयाँ ..या फिल्म बनाने वाला कौन से धर्म का है ....पर धीरे धीरे जैसे सब लुप्त हो गया ...

मुस्लिम समाज की तहजीब , शान शौकत और नजाकत जो कल तक हिंदी फिल्मो में होती थी अचानक कंही विलुप्त हो गई ....
आजकल हिंदी फिल्मो में पहले तो कोई मुस्लिम किरदार  हीरो होता ही बहुत कम है अगर कोई कुछ हो भी तो उसे गाहे बगाहे आतंकवादी के रूप में चित्रित कर दिया जाता है .....

जैसे साहित्य समाज का दर्पण होता है वैसे ही किसी देश की फिल्मे भी वंहा के लोगो की सोच , कल्पना , परिवेश , संस्कृति और समाज को परिभाषित करती है ....हम कितने ही दावे करे की फिल्मे सिर्फ मनोरंजन भर के लिए होती है ..पर इस हकीकत से मुह नहीं मोड़ा जा सकता की कंही ना कंही वोह हमारी सोच और समाज के वयवहार से हमें और दुनिया को रूबरू करवाती है....

जब फिल्मो में मुस्लिम किरदार इक अनपढ़ , जाहिल या आतंकवादी दिखाया जाएगा .... तो कंही ना कंही यह सन्देश भी जाता है ..की मुस्लिम समाज में सिर्फ ऐसे ही लोग है .....

क्या यह लोगो को गुमराह करने का इक जाना अनजाना प्रयास नहीं ?  

60/70 के दशक तक जिस समाज में तहजीब , इज्जत/आबरू , पढ़े लिखे और नेक नियत से भरे किरादर होते थे ...जो औरत को इक भोग की वस्तु ना समझ उसकी इज्जत करते थे ...वोह उसके हुस्न की पूजा करते थे ..उसमे भोग के लिए कोई स्थान ना था  जिनमे शायरी और संगीत की लहरे दौड़ती थी ..वोह आज की फिल्मो के समाज में कैसे और क्योकर नहीं है ?

लैला मजनू , श्री फरहद , मिर्जा ग़ालिब जैसे शक्शियत क्या अब इस दुनिया में जन्म नहीं लेती ?

क्या मुस्लिम समाज पहले के मुकाबले कम पढ़ा लिखा , जाहिल और जालिम हो गया है ? या फिर हमारी फिल्म बनाने वालो को इक मुस्लिम किरदार में सिर्फ आतंकवादी ही दीखता है ? क्या यह मुस्लिम समाज के खिलाफ इक षड्यंत्र तो नहीं ?

कितनी अजीब बात है जब इस देश में हिन्दू मुसलमान के नाम पे विभाजन के खून खराबे को झेला तब भी मुस्लिम समाज को इतनी जिल्लत भरी नजरो से नहीं देखा जितना आजकल ..आखिर क्यों ?

आखिर क्या बदल गया पिछले 20 सालो में ...जो मुस्लिम किरदार अपने साथ इक नेक नियत और नजाकत भरी खुशबु का झोका लाते थे ..वोह आज नफ़रत के जलजले में तब्दील हो गए? ....

सबसे बड़े अफ़सोस की बात यह है ...की आज हिंदी फिल्मो के ३ मेगा स्टार मुस्लिम समाज से है ...पर उन्होंने भी शयद ही कोई ऐसा किरदार निभाया हो ..जिसे वोह फक्र से कह सके की उन्होंने ..इक सच्चे , वफादार , नेक और शरीफ मुसलमान को उस करदार के माध्यम से दुनिया के सामने दिखाया ....

सिर्फ अपनी झोली भरना ..और जो बिकता है वही दीखता है के कांसेप्ट पे चलने वाले यह बिज़नस मैन क्या कभी ...अपनी कौम के लिए कुछ करंगे ..की उनका खोया सम्मान ..हकीकत में ही ना सही ..कम से कम फिल्मो में ही नजर आजाये ...

   By

Kapil Kumar



Note: “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. Resemblance to any person, incident or place is purely coincidental”. The Author will not be responsible for your deeds.

No comments:

Post a Comment