Thursday 12 November 2015

तू ही तो मेरी राधा है !!




सदियों से चली रही हमारी प्रेम कहानी का जैसे कोई अंत ना था ..इतिहास गवाह है ..की जब जब प्रेम असफल हुआ..ना जाने इस दुनिया को उसमे क्या रहस्य , रोमांच और आकर्षण नजर आया.... की इक साधारण मनुष्य जो अपने प्रेम की अनुभूति में मग्न था ..उसके प्रेम को इस जालिम दुनिया ने कभी पूर्ण ना होने दिया ...

किन्तु अब तिथि और काल  बदल चूका है .... आज के कलयुग में मान मर्यादा ने अपनी पहचान त्याग से हटा कर अपनाने में बदल दी है .....अब विरह की अगिनी में प्रेमी युगल का दहन नहीं होता ...अब मिलन ही सच्चे प्रेम का रूपक है ...

आज फिर ..मेरे बगीचे में चिडियों की चहचाहट ,तितलियों की मुस्कान ,नील आसमान  ...हलकी सी तपिश देते सूरज , पेड़ो की टहनियों से फूटती नयी कोपलो और नयी नयी कलि से खिलते फूलो ने ... मुझसे पूछ ही लिया ...सबने जैसे ठान लिया था की आज हम जानकार ही रहेंगे .... की इतने युगों की विरह की अग्नि में जलने के बाद भी क्या आपका प्रेम निर्मल नहीं हुआ ?...

इन सबका वोह ही प्रशन हर बार की तरहा  ..की .... अब फिर वसंत आने वाला है ....इस बार नहीं ...तो फिर तुम कब जाओगे ?...

मुझे याद है आज भी... जब जब तु यमुना किनारे मेरा इन्तजार करती थी ....उन चांदनी रातो की रौशनी में तेरी अठखेलियाँ करना ... मेरे छूने भर से ...वोह तेरा शरमा के पेड़ो के झुरमटो में छिप जाना .... मुझे कितना हैरान और परेशान करता था ?...

मुझे यूँ सता कर तुझे बड़ा आन्नद आता ..फिर मैं तुझसे रूठ ...किसी पेड़ के साए में सो जाता ...तब तेरी खिलखिलाती हंसी भी मुझे ना रिझा पाती ..फिर तू उत्सुकता से अपनी पायल की छम छम करती मधुर ध्वनि से मेरा ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने की असफल चेष्टा करती ..पर  ..मैं भी बनावटी क्रोध की मुद्रा लिए .... तेरे प्रेम की परीक्षा लेता ...की तू मुझसे कितना प्रेम करती है ?

ना जाने क्यों ....तुझे मेरी बांसुरी की धुन में इक आनंद आता ....की तू अपनी सुध बुध खो कर डूब जाती ...उन धुनों में जिन्हें मैं यूँही छेड़ देता ... मेरी मुरली की हर धून में सिर्फ तेरे लिए सन्देश होता ...की ...तू मेरे  हर्दय के भावो को समझ सके ...की मैं तुझसे कितना प्रेम करता हूँ ... मेरी मुरली की हर तान में सिर्फ इक सुर होता ... .हे राधे ...तू ही मेरा निर्मल प्रेम है ...

मुझे आज भी याद है वो हर इक पल ....कैसे मेने अपने दिल पे पत्थर रख तुझे अकेला छोड़ा था ....तू करती रही मेरा इंतजार उन अनंत रातो तक ...की कब मेरे आने की आहाट ... तेरे दिल लो सकूंन दे सके ... पर मेरी भी मज़बूरी थी ....की... मैं भी उलझ गया था ..उन इंसानी कशमकश में ....की जीवन में कर्तव्य बड़ा है या प्रेम ?

पर अब मेरी वोह मज़बूरी ना रहेगी .... तूने तो मेरे इंतजार में आंशु बहा लिए होंगे ...पर ...मेने कैसे काटी होंगी वोह चांदनी राते करवट बदल बदल कर.. तुझे उनका गुमान ना होगा ... तुझे लगा होगा  की मेने अपना वादा नहीं निभाया और तुझे भूल गया और छोड़ दिया सहने को इस बेदर्द ज़माने के जुल्मो सितम ....पर अपनी वेदना को.. मैं कैसे और किससे कहता ...की मेने युगों युगों तक हर जन्म में हर पल ...हर सांस में सिर्फ तेरा ही नाम लिया .....

जब जब सूरज की पहली किरण अपनी लालिमा लेकर इस जगत में आई .... मेरी खामोश और नाम आँखों ने उनमे तेरे रूप की आभा को ही पाया ....पर यह सूरज भी इतना बेदर्द था .... की इसे मेरे इस सकूंन से ही अदावत थी ...जब जब इसकी उषा में.. मैं तेरी चंचल कोमल शर्मीली योवन की तपिश में मदहोश होता....यह मुझे अपनी तेज ऊष्मा के दहन से मेरे सांवले शरीर को जलाने लगता ...

फिर मैं करता उन चांदनी रातो का इंतजार ... जो मेरे तडपते ह्रदय और जलते बदन को अपनी ठंडक से राहत दे दे ...पर मेरे विरह की अग्नी ....इन चांदनी रातो की शीतलता से और भड़क उठती ....यह चांदनी राते मुझे ..तेरे साथ बिताये पलो की यादे ताजा कर ..मेरे सीने में हलके हलके नश्तर चुभोती ...जिन्हें मैं हँसते हँसते सह लेता ...की इस रात की कभी तो सुबह होगी ?

मेरा दिल मुझे उलाहने देता और आइना मुझसे प्रतिदिन इक ही प्रशन करता ....की ..तुम कब जाओगे ?
वोह तुम्हारी प्रतीक्षा में कितने युगों से विरह की अगिन में जल रही है .... उसकी आँखे तुम्हारा पथ निहार निहार कर पथरा चुकी है... मैं हर बार अपने छिपे हुए आंशुओ का वादा दे .... आइना को झूट बोल देता ....की मैं तो बंधा हूँ इन कर्तव्य की जंजीरों में .... इस समाज और देश के लिए ... मुझे अभी निभाने है अपने दयित्व्य....

मेरे उदासियो और मजबूरियों का रेगिस्तान हर बार मुझे अपने चक्रवात में उलझाते हुए ले जाता और छोड़ देता भटकने के लिए ....मैं हर चमकती परछाई  के पीछे दीवानो की तरह भागता ... शायद इस बार कंही प्रेम की दो बूंद मुझे नसीब हो जाए ....
पर तेरी बेवफाई की आरजू .... मुझे बार बार म्रग्मारिचिका की तरह अपनी तरफ खींचती और मैं फिर से बावरा बन .... इन विरानो में भटकने के लिए जन्मो जन्मो के लिए खो जाता ...

मैं ना तो कल बेवफा और बेदर्द था और ना आज हूँ  ...जब जब इस शीतल पवन ने वसंत के आने का सन्देश दिया ....हर बार मेरा हर्दय ने मचल कर कहा  ....कंही  यह तेरे बदन की खुशबु तो नहीं ?

जब जब कोई कलि कंही किसी गुलिस्तां में महकती ....हर पल यह अहसास मेरे मन में होता कंही यह तेरी सांसो की महक तो नहीं ?

जब जब रिम झिम घटाये आकश में छाती ....यूँ अहसास होता ....की तूने कंही मेरे पथ की पहचान के लिए ... अपने केशो को खुला तो नहीं छोड़ दिया? ...
यह बावरा मन हर पल ....तुझसे मिलने को बैचेन होता ..दीवानगी में मचलता ....मेरा अक्श मुझसे सवाल करता ....फिर मैं अपने ह्रदय पे पत्थर रख लेता और भरे दिल से अपने को तसल्ली देता ...की तू कंही किसी और की तो नहीं ?

पर अब यह अनंत पलो का इंतजार शीध्र ही ख़त्म होगा ... इस समाज और ज़माने की बंदिशे और जंजीरे मुझे ना रोक पाएंगी ...मैं तुझसे इस जन्म में हर हाल में मिलूँगा क्योंकि मैं इस नए ज़माने का कृषण हूँ और तू मेरी राधा ....पर अब हमारा मिलन होगा और फिर कोई आने वाले भविष्य में हमारी अधूरी प्रेम कहानी नहीं पढ़ेगा ....




  By 
Kapil Kumar 


Note: “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. Resemblance to any person, incident or place is purely coincidental.' Do not use this content without author permission”



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