Saturday 14 November 2015

इर्ष्या तू ना गई मेरे मन से ?


आज बहार लंच करते वक़्त इक पुराने जान पहचान वाले गोरे रोबिन (अमेरिकन काकेसियन ) से मुलाकात हो गई ...साथ में मेरा बड़ा लड़का भी था ..जो मेरे ही ऑफिस में समर जॉब कर रहा था ....बातो का सिलसिला चालू हुआ ..तो मुझे रोबिन की बातचीत सुन बड़ा झटका लगा ...उसने मेरे लड़के के सामने अपने बच्चो के बड़े  ही वाहियात किस्म के किस्से  सुनाने  शुरू कर दिए...की  कैसे ..उसका लड़का कॉलेज से ड्राप आउट हुआ , कैसे उसकी लड़की तेज गाडी चलाती हुई पकड़ी गई और कैसे उसके बच्चो ने उसके और उसकी बीवी के शहर से बहार होने का फायदा उठा कर घर में अपने दोस्तों को इक बड़ी पार्टी दी.....

पहले तो मुझे यह बाते ऐसी लगी की जैसे वोह बताना चाहता था की बच्चे कितने वाइल्ड स्वाभाव के होते है ...पर जब उसने अपने और रिश्तेदारों के बच्चो के अजीबो गरीब किस्से सुननाने शुरू कर दिए ..तो मेरा माथा ठनका .... मुझे यह समझ ना आया .... की आज से पहले हमारी इतनी बातचीत हुई थी पर इसने कभी यह किस्से ना सुनाये थे ... जबकी हम दोनों इक साथ इक ही ऑफिस में काम करते थे ....उस वक़्त तब कोई भी बात बच्चो से सम्बंधित होती तो ..वोह कुछ ना बोलता था ..पर आज ऐसा क्यों ?

उसके जाने के बाद जब यह बात मेने अपने लड़के से की ....तो वोह बोला ..यह मुझे भड़काने और गलत सलाह देने की नियत से ऐसा बोल रहा था ...उसकी यह बात मेने गौर से सोची तो समझ आया ..की रोबिन के मन में अंदर कंही कंही मुझे लेकर इक इर्ष्य थी ... की कैसे उसके बच्चे और मेरे बच्चे आपस में अलग अलग है या उसे मेरे लड़के के सीधे स्वाभाव से इक बैचेनी सी हुई ..की वोह उसके बच्चो जैसा वाइल्ड क्यों नहीं है ?

ऐसे ही किसी के बच्चे के टॉप करने पे माँ बाप का कहना ..अरे सिर्फ पढने से कुछ नहीं होता ..बच्चे को और भी चीजे आनी चाहिए ....या किसी गोरी स्त्री को देख दूसरी स्त्री का कहना ..अरे सिर्फ रंग ही गोरा है ..बाकी नयन नक्श कोई खास नहीं ..या किसी के अमीर बन जाने पे किसी का कहना ..अरे यह कल तक तो यह मेरे सामने कुछ था ..बस पैसा ही कमाया है ......नाम और इज्जत थोड़ी ना .....या किसी और बात पे दुसरे को निचा दिखाना ..यह सब इर्ष्या के ही अलग अलग रूप है ....

अगर गौर से देखे तो ..इर्ष्या इक ऐसी बीमारी है ..जिससे शायद ही कोई इन्सान पीड़ित ना हो ..यह अलग बात है की ..किसी पे इसका प्रकोप कम तो किसी पे कुछ ज्यादा ही होता है ....कुछ लोग सिर्फ मन की भड़ास निकल कर भूल जाते है ..तो कुछ लोग इसे मन में पाल कर दुसरे का बुरा करने में जुट जाते है ..बहुत ही कम ऐसे लोग होते है ..जो इन बातो से प्रभावित नहीं होते ...

इर्ष्या होने या किसी के प्रति जलन महसूस करने के लिए किसी गैर इन्सान का होना जरुरी नहीं है ...अधिकतर हम इर्ष्या उन लोगो से ही करते है जो हमारे सबसे करीबी या शुभचिंतक होते है ....

भाई बहन का , रिश्तेदारों का ,अडुसी पडुसी का ,बिजनेस प्रतियोगी और साथ काम करने वालो का आपस में इर्ष्या होना बड़ी आम सी बात है ...अगर ढूंढे तो इसका कोई मनोवाज्ञानिक पहलु नजर नहीं आता..यह तो इक ऐसी लाइलाज बीमारी है जो जन्म से ही इन्सान को अपनी गिरफ्त में ले लेती है ...

किसी को ऑफिस में तरक्की मिले तो कंही किसी को जलन जरुर होगी ..अगर भाई बहन में से इक ज्यादा कामयाब तो बाकी उसकी लानत मानत करते हुए मिल जायंगे .... अडुसी पडुसी और रिश्तेदारों का तो यह जन्मसिद्ध अधिकार है ...की दुसरे की ख़ुशी पे छाती पीटना और तरक्की पे सांप सूंघना जैसे बड़ी आम सी बात है....इन  रिश्ते में इर्ष्या है यह तो समझ आता  है ....पर आधुनिक युग में पति पत्नी भी इस बीमारी से ग्रसित हो रहे है ..

वास्तव में कितने पति है ..जो पत्नी की तरक्की से खुश होते है या उसे सचे दिल से कामयाब देखना चाहते है ?....या कितनी पत्नियाँ है ..जो पति को बना ठना देख खुश होती है ..जंहा पति अंदर ही अंदर इस जलन से उसके पीछे मरा जाता है ..की ...पत्नी की तरक्की का मतलब उसकी इज्जत की वाट लगना ...और यही सोच उसके अंदर इक हीन भावना को जन्म देती है ...वन्ही आजकल पत्नियाँ भी कुछ कम नहीं है ..पति अगर ऑफिस से चहकता हुआ घर आए तो कुछ पत्नियों के सीने पे जैसे सांप लोट जाता है ..या पति आराम से घर में बैठा टीवी देके तो उसके आराम को देख उन्हें बैचेनी होने लगती है ....की यह जोरू गुलाम इतनी बेदर्दी से कैसे चैन के मजे लूट सकता है ?

यह सब इर्ष्या के अलग अलग रूप है ... जो किसी की उन्नति से ..तो कभी किसी की ख़ुशी को देख जाने अनजाने अपने आप दिल में इक आग सी सुलगाती है ..बस फिर इन्सान भावनाओ में बह या तो निंदा पुराण करके अपने दिल को तस्सली देता है या फिर दुसरे का अहित करने की तरकीब सोचने लगता है ...

अगर हम गौर से देखे ...जब से मानव का विकास हुआ है उसने सभ्यता , संस्कृति और सदाचार जैसे गुणों के साथ साथ कुछ अवगुणों को भी अपना लिया ....जीवन में आगे बढ़ने की चाह , कुछ ज्यादा पाने की इछा... हर किसी के मन में कंही ना कंही किसी ना किसी रूप में छिपी रहती है ....

कहने को हम कितनी भी सद्गुरु , सद्भावना और सत्य की बाते करे ...पर किसी के दुःख को अपना दुःख समझना और दुसरे की ख़ुशी में खुले दिल से शरीक होना ..यह दोनों ऐसी चीजे है ...जिन्हें किसी संस्कार .शिक्षा या विकास के द्वारा किसी के मन में नहीं रोपा जा सकता .... कहने का तात्पर्य यह है ...अभी भी मानव अपने विकास की पूर्ण अवस्था में नहीं पहुंचा है .....

जब तक मनुष्य अपनी भावनाओ , इच्छाओ और मानसिक स्थिति पे पूर्ण रूप से काबू करना नहीं सिख लेता ..उसका विकास अधुरा ही कहा जाएगा ...अगर हम प्राचीन काल से आज तक के मनुष्य का सफ़र देखे तो ..हम समझ पायेंगे ..की मनुष्य धीरे धीरे अपने गंतव्य की और बढ़ रहा है ...जो कलतक उचित था आज वोह अनुचित है ...फिर भी कुछ सभ्यता और संस्कृति अभी भी अपने बारबेरियन युग में सिसक रही है ...उन्हें अभी बहुत लम्बा रास्ता तय करना है ...

जिन सभ्यता और संस्कृति ने मानव मूल्यों को समझा है ....उन्होंने भी अच्छी तरह से यह समझ लिया ...की मनुष्य जब तक अपने ऊपर पूर्णत नियंत्रण करना नहीं सीखता ...तब तक उसका आपस में टकराव चलता रहेगा ....इक मानव  दुसरे मानव से श्रेष्ठता की दौड़ में उलझा ..इक दुसरे को नीचा दिखाता रहेगा ....

अध्यात्म के नजरिये से देखे तो .....  क्रोध को काबू में किया जा सकता है ...  लालच का त्याग भी सम्भव है ...  वासना पे भी नियत्रण किया जा सकता है ....  दुःख को सहने की छमता बढाई जा सकती है ... पर इर्ष्या का त्याग कैसे हो यह अभी भी रहस्य है ?

क्या इक गुरु ..दुसरे गुरु की तरक्की से ..या अपने ही चेलो की तरक्की से खुश होता है ? क्या अध्यात्म में रहने वाला इन्सान इंसानी भावनाओ से ऊपर उठ ..किसी के प्रति कोई कडवाहट नहीं रखता ..कहने को हम बहुत धिन्डोरा पीट सकते है ..की हमें किसी की तरक्की या ख़ुशी से कोई इर्ष्या नहीं ..पर ..क्या वास्तव में ऐसा है ?

सोचने की बात यह है ...की क्या सिर्फ मनुष्य में ही इर्ष्या होती है ...या पशु पक्षी भी इसका शिकार होते है ?....सच तो यह इर्ष्या पशुता की ही निशानी है ....किसी के जबड़े में लगा इक मॉस का टुकड़ा ....दो शेरो , गिदडो , भेडियो , कौवों , गीधो या किसी भी मांसहारी के बिच संग्राम करने के लिए प्रयाप्त है .....शाकाहारी पशु पक्षी भी इन सबसे अछूते नहीं है ...दानो के लिए चिडया और कबूतरों में जंग , रोटी के टुकडो के लिए कुतो का भिड़ना बड़ी आम सी बात है ... ऐसा नहीं की सिर्फ खाने के लिए ही  जानवर आपस में जंग करते है मादा से संभोग के  लिए बरसिंघा , सांडो , भेंसो और कुत्तों में होने वाली खुनी जंग जगजाहिर है ...

अगर गौर से देखे तो यह सब इर्ष्य के अलग अलग रूप है ..जिसमे इक दुसरे से ज्यादा पाना चाहता है ....वोह उसके लिए छिना झपटी करेगा ..अगर उससे काम नहीं चला तो लड़ने मरने से भी नहीं हिचकेगा ....

इसका विस्तृत रूप हमें मनुष्य में भी देखने को मिलता है ....हम जिस समाज में रह रहे है ..भले ही वोह समाज आज आधुनिक युग के दौर से गुजर रहा है ..पर इस तरह का खुनी खेल कुछ समुदायों में अभी तक जारी है ....जंहा पहले बाहू बल पे इक इन्सान दुसरे का प्यासा था ..आज वही अपनी बन्दुक की ताकत पे ऐसा कर रहा है ...

पर अफ़सोस ....ऐसे समाज में जंहा लोग क़ानून या समाज के डर से दुसरे के खून से अपनी प्यासा नहीं बुझा पाते..वोह लोग समाज में इक सफेदपोश लबादा ओढ़े ..अपने कुत्सित सोच और इरादों से अपने कृत्य को अंजाम देते है .....

शायद राजनीती का पहला अध्याय लिखने वाला इन्सान इर्ष्या नाम की इस बीमारी से अत्यंत पीड़ित था ....तभी तो उसने इक ऐसी निति की कल्पना की जिसमे ....छद्म , द्वेष और षड्यंत्र का मिक्सचर मिला कर पिलाया की  ...जिसने इन्सान को ऐसा बीमार किया ..जिसका अंत इर्ष्या जैसी बीमारी के जन्म का कारण बना ...

ऐसा नहीं के मेर अंदर इर्ष्य का भाव नहीं ....पर मेने अपना मुल्य्कन किया ..की ...मैं जब कभी किसी के प्रति इर्ष्या का भाव रखता हूँ तो ..मुझे कंही ना कंही अपने अदर इक ऐसे कमजोर इन्सान की छवि नजर आती है ..जो अपने को दुसरे के सामने कमजोर और असहाय पाता है ...वोह अपने मन को बहलाने के लिए ..इर्ष्य का  आवरण ओढ़ दुसरे को भला बुरा कह या सोच कर अपने अशांत मन को शांत कर लेता है ....यह इक ऐसी सहूलियत है ..जो हमारी कमजोरी को आसानी से ढक देती है .....

अगर इर्ष्या की जगह हम प्रतिस्पर्धा करे तो वोह ज्यादा उपयुक्त होगी ..पर उसके लिए हमें अपना सही मूल्याकन करना होगा और हो सकता है ....तभी शायद हम यह समझ पाए की हम उतने काबिल , भाग्यशाली या मेहनती नहीं जितना की सामने वाला है ..पर यह इक ऐसा कड़वा सच है ..जिसे ही शायद कोई पीना चाहे ??...

इसलिए उस कडवी सच्चाई से अच्छा है ....है की कुछ निंदा रस करके ही दिल बहला लिया जाए ...या फिर उसे गिराने के लिए कोई उक्ति सोची जाये ....अब किसी की लकीर आपकी लकीर से बड़ी है तो ..आपके पास दो ही विकल्प है ...की आप अपनी लकीर को दुसरे की लकीर से बड़ी कर ले या फिर उसकी लकीर मिटा कर छोटी कर दे .. इर्ष्या का जन्म  दूसरी सोच के कारण हुआ ..अब हर कोई तो अपनी लकीर बड़ी नहीं कर सकता .... इसलिए दुसरे की छोटी करना ज्यादा आसन है ....अब इस वजह से इर्ष्या मेरे मन में कंही ना कंही अपने पैर पसार लेगी ..तो क्या हुआ ?? ......

By
Kapil Kumar 



Note: “Opinions expressed are those of the authors, and are not official statements. Resemblance to any person, incident or place is purely coincidental”. The Author will not be responsible for your deeds.


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