Sunday 8 November 2015

मुक्ति !

                            


 इक बार की बात है ! इक भगवान् का भक्त था उसका भक्ति करना का अंदाज निराला था वो मन ही मन अपने प्रभु का ध्यान कर प्रसन्चित्त हो जाता और पूर्ण आनंद की प्राप्ति करता ।सारे आडम्बर से दूर यह भक्त तो प्रभु की "साधना",पूजा या आरती करता, ही प्रभु को कोई भोग लगता, ना ही प्रभु के आगे दुःख में गिडगिडाता या सुख में दान पुण्य  करता|
वोह हमेशा  प्रभु के प्रेम में लीन रहता |

                                         उसकी यह भक्ति/प्रेम देख प्रभु प्रसन्चित होते पर आशचर्यचकित  भी होते ।ना जाने कैसे भगवान को अपने इस भक्त पर संदेह हो गया की उनका भक्त उन्हें सच्चा प्रेम नहीं करता है |

                                                 और भगवान इंसानी भावनाओ में बह भक्त की परीक्षा लेने धरती पर जा पहुंचे |उन्होंने देखा, उनका भक्त बड़े ही मनोभाव से उन्हें प्रेम कर रहा है प्रभु को अपने भगवान् होने का संदेह हुआ

                                                            उन्होंने सोचा , मेने इस भक्त को आज तक कुछ नहीं दिया और ही इसने मुझसे कुछ माँगा तो यह कैसा भक्त है जो बिना किसी आशा के मुझे  प्रेम कर  रहा है |जितना वोह अपने भक्त को देखते उतना ही भगवान् को अपने ऊपर उतना ही शक ज्यादा होता और उनका मन  उनसे पूछता |
"क्या मैं  प्रेम करने के योग्य हूँ? "

                                                           जब भगवान् की व्याकुलता इतनी बढ़ गयी की उन्हें अपने भक्त के "निर्मल" प्रेम पर संदेह ही नहीं हुआ | अपितु, उन्हें  पूरा यकीन  हो गया की मेरा यह भक्त सिर्फ दिखावा कर रहा है और इस अनजाने भय से भयभीत हो ,उन्होंने भक्त के सामने जाकर स्थिति का अवलोकन करना उचित समझा |
भगवान्  इक रूपवती  स्त्री का रूप धारण कर अपने भक्त के पास पहुँच गये 


               भगवान् स्त्री वेश में  बोले ,हे  आर्यपुत्र मैं इक अबला नारी हूँ , मैं अपने पति से प्रेम नहीं करती पर सामाज के भय से उसे ऊपर से प्रेम करने को विवश हूँ अगर मैं उसे प्रेम करूँ तो वोह रुष्ट होकर अत्याचारी हो जाता है  तब मेरा धर्म मुझे धिक्कारता है अगर अपने पति से प्रेम करूँ तो मेरी आत्मा मुझे कचोटती है| मैं कान्हा जाऊ और क्या करू ? और कौन है  में जो मुझ अबला को इस जन्म में  निस्वार्थ प्रेम करे , क्या तुम इसके योग्य हो?
  कृपया करके  तुम मेरा मार्ग दर्शन करो

                                                   स्त्री (प्रभु) की पीड़ा समझ , भक्त बोला , हे देवी तुम इस जन्म में अपने संस्कारो और धर्म की वजह से अपने पत्नी धर्म से बंधी हो , अगर तुम उससे आजाद होकर मेरे पास आना चाहो तो मैं उसके लिए बिना शर्त तैयार हूँ पर उसके लिए तुम्हे अपना पत्नी धर्म का त्याग करना होगा अगर किसी कारन वश तुम ऐसा करने में विफल होती हो , फिर भी मैं तुम्हारी  सहायता करूँगा तुमाहरे  धर्म का सम्मान करते हुए मैं तुम्हे हर तरह से सहायता करने के लिए उपलब्ध हूँ  
                               भगवान् यह सुनकर मन में प्रसन्चित हुए पर इनका संशय गया वोह बोले, हे आर्यपुत्र , मैं तो अपने पति से निर्बध प्रेम करती हूँ तुम मुझे अपनी बनाकर मेरा धर्म  भ्रष्ट  करना चाहते हो !     
    
तुम कैसे प्राणी हो ?

                              भक्त की स्थिति विचित्र हो गयी अगर वोह " स्त्री "  की सहायता  करे तो उसके प्रेम का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाता,| कुछ नहीं करे तो मनुष्यता का दमन हो जाताउसे लोग पत्थर दिल समझते  और स्त्री की गरिमा सामाज में कम हो जाती
बहुत सोच विचार के भक्त बोला

                                                                       "हे देवी " तुम मेरे घर में देवी बन कर रह सकती हो  और जिस तरह मैं अपने प्रभु से प्रेम करता हूँ उतनी ही निष्ठा से तुमसे करूँगा मैं तेरा "उपासक" बन कर रहूँगा ।जिस दिन तुम्हे मेरा आचरण अपने धर्म से सर्वोपरि लगे उस दिन तुम मेरा "कल्याण" करके मुझे मेरा  धर्म बता  देना ,
ऐसा कह भक्त चुप होगया

भक्त के इतना कहते  ही ,अचानक भगवान् का स्त्री रूप विलीन हो गया और भक्त के सामने प्रभु प्रगट हो गए  और भक्त से बोले ,
हे मानव तूने यह कैसा प्रेम किया ?
                                                      मेने तेरा अपमान किया तुझे बुरा भला कहा और तेरी निष्ठा पर सवाल उठाया फिर भी तूने  निर्भय होकर अपने प्रेम का परिचय दिया और मुझे अपनाया | यह कैसा प्रेम है ?
भक्त बोला प्रभु प्रेम तो 'आत्मा' से किया जाता है |
                                             
                                                       मेने आपसे प्रेम जगह , स्थिति या शारीर की पमानिकता के आधार पर नहीं किया अगर आप स्त्री हो कर कुछ और होते तो भी मैं आपका वरण  करता परन्तु उस स्थिति में मेरा संबध आपसे कुछ अलग होता , संबध तो सामाजिक स्थिति का परिचायक मात्र है !पर प्रेम इन सबसे ऊपर है यह किसी सामाज या  संबध से नहीं बंधा !

                                                         शारीर से धर्म निभाया जाता है!आप किसी धर्म में पैदा हों यह आपका भाग्य है पर उस धर्म को पूजना यह उस धर्म के प्रति आपकी आस्था है और
मेरी आस्था , धर्म और पूजा तो सिर्फ प्रेम है वोह चाहे प्रभु हो या मानव !
                                           
                                         मेने आपसे और समस्त मानव जाति से  प्रेम किया है , अगर आपका कोई शारीर भी होता तो भी मेरे प्रेम में या निष्ठा में कोई कमी होती , आप साकार है या निराकार या कुछ और 
प्रभु और भक्त तो सिर्फ "आत्मा" के बंधन से बंधे है उन्हें किसी रूप , लावण्य या किसी भी प्रकार के आडम्बर की आश्यकता नहीं।

अपने भक्त की यह बात सुन प्रभु प्रसन्न  हुए और अपने असली रूप में आगये ।उनका असली रूप देख भक्त चौक उठा !

                              उसने कल्पना भी की थी जिस "बोधिसत्व" का उसने अनजाने में त्याग  कर दिया था वोही बोधिसत्वउसे इस रूप में वापस मिल गए |अचानक फूलो की वर्षा हुयी और इक आवाज आई
"बोधिसत्व " और भक्त "कपिल" का कल्याण हुआ

भक्त कपिल बड़ा विचाम्भित हुआ बोला , हे प्रभु मुझे तो आपने "मुक्ति" की शर्त में बांध दिया था पर आप कौन से बंधन में बंधे थे
                                                               " बोधिसत्व " बोले , जब मैं ,तुम्हे अकेला छोड़ अपनी हटधर्मिता के कारन  चला गया तो मुझे ज्ञान  हुआ की मेने तुम्हारे साथ न्याय नहीं किया और उसका प्रयाश्चित यह था , की मैं इक हटधर्मी  नारी के रूप  में जन्म लेकर अपनी पति दुरा पीड़ित स्त्री के जीवन याचना को लेकर तुम्हरे पास जाऊ अगर तुमने बिना कोई "आडम्बर " किये बिना अपनीआस्थाखोये मुझे स्वीकार कर लो ,तो मेरा प्रायश्चित  और तुमारी मुक्ति दोनों संभव हैं। आज तुम इस मनुष्य जीवन से मुक्त हो 

                                                    ऐसा कह प्रभु (बोधिसत्व ) और भक्त (कपिल) अन्तार्धय्न  हो कर ब्रह्माण्ड में विलीन हो गए ।और इस तरह भक्त 'कपिल" की मुक्ति इस जन्म में हो गयी

By 
Kapil Kumar


Note:-भक्त कपिल और बोधिसत्व को मुक्ति की आवश्यकता क्यनो पड़ी उसके लिए पढ़े  

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